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( ४६ ) आजकल हमारे जितने पुराण हैं वे सब श्रेणिक के पूछने पर गौतम गणधर के कहे हुए बतलाये जाते हैं । आजकल जो रामायण, महाभारत प्रसिद्ध हैं, श्रेणिक ने उन सब पर विचार किया था और जब वह चरित्र उन्हें न अँचे तो गौतम से पूछा और उनने सब चरित्र कहा और बुराइयों की बीच बीच में निन्दा की। लेकिन इसके बीच में उनने कहीं विधवा विवाह की निन्दा नहीं की। हमारे पंडित लोग विधवा विवाह को परस्त्रीसेवन से भी बुरा बतलाते हैं लेकिन गौतम गणधर ने इतने बड़े पाप (?) के विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा । इससे साफ मालूम होता है कि गौतम गणधर की दृष्टि में भी विधवा विवाह की बुराई कुमारी विवाह से अधिक नहीं थी अन्यथा जब परस्त्रीसेवन की निन्दा हुई और मिथ्यात्व की भी निन्दा हुई तब विधवाविवाह की निन्दा क्यों नहीं हुई ?
एक बात और है। शास्त्रों में परस्त्रीसेवन की निन्दा जिस कारण से की गई है वह कारण विधवा विवाह को लागू ही नहीं होता । जैसे
यथा च जायते दुःख रुद्धायामात्म योषिति । नरान्तरेण सर्वेषामियमेव व्यवस्थितिः ॥
"जैसे अपनी स्त्री को कोई रोकले तो अपने को दुःख होता है उसी तरह दूसरे की स्त्री रोक लेने पर दूसरे को भी होता है।"
पाठक ही विचारें, जिसका पति मौजूद है उसी स्त्री के विषय में ऊपर की युक्ति ठीक कही जा सकती है। लेकिन विधवा का तो पति ही नहीं है. फिर दुःख किसे होगा ? अगर
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