Book Title: Jain Dharm aur Vividh Vivah
Author(s): Savyasachi
Publisher: Jain Bal Vidhva Sahayak Sabha
Catalog link: https://jainqq.org/explore/034860/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ सी पत्र के इसी अङ्क का क्रोड पत्र। Allbillèle Vs 5 જૈન ગ્રંથમાળા, FEEसाहेन, लापनगर. Reenene-2020 : SA22008 si नैनधर्म : ५१. वेधवा विवाह (प्रथम भाग) ****** लेखक:श्रीयुत “सव्यसाची" प्रकाशक: दौलतराम जैन, मंत्री जैन बाल विधवा सहायक सभा दरीबा कलाँ, देहली शान्तिचन्द्र जैन के प्रबन्ध से "चैतन्य” प्रिन्टिङ्ग प्रेस, बिजनौर में छपी। मूल्य प्रथम वार पौष २०००वीर नि० सम्वत् २४५५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धन्यवाद * • इस ट्रक के छपवाने के लिये निम्न लिखित महानुभावों ने सहायता प्रदान की है, जिनको सभा हार्दिक धन्यवाद देती है। साथ ही समाज के अन्य स्त्री पुरुषों से निवेदन करती है कि वे भी निम्न श्रीमानों का अनुकरण करके और अपनी दुखित बहिनों पर तरस खाकर इसी प्रकार सहायता प्रदान करने की उदारता दिखलावे: १०) लाला दौलतराम जैन, कटरा गौरीशंकर देहली। १०) लाला केसरीमल श्रीराम चावल वाले देहली। १०) लाला शिखरचन्द्र जैन । ५) लाला कश्मीरीलाल पटवारी बदर्खावाले डाकखाना छपरोली। १०) मुसद्दीलाल लेखराज कसेरे मेरठ छावनी । १०) गुप्तदान ( एक जौहरी)। १०) गुप्तदान ( एक बाबू साहिब)। १०) गुप्तदान (एक जौहरी)। १०) गुप्तदान ( एक ठेकेदार )। ५) गुप्तदान (एक सराफ़ )। १०) गुप्तदान ( एक गोटेवाले)। १०) ला० झन्नूलाल शिवसिंहराय जैनी, शादरा देहली ११० ) कुल जोड़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम्र निवेदन यह पाठकों से छिपा नहीं है कि विधवा-विवाह का प्रश्न दिन २ देश व्यापी होता जा रहा है। एक समय था "कि जब विधवा विवाह का नाम लेने ही में लोमा भय खाते थे: आज यह समय श्रागया है कि सब से पीरहने वाले सनातन, धर्मी और जैन धर्मी बड़े २ विद्वान् भी इसका प्रचार में तन मन और धन से जुटे हुए दिखाई पड़ते हैं। यह देश के परम सौभाग्य की बात है कि अब सर्व साधारण को विधवा विवाह के प्रचार की आवश्यक्ता का अनुभव हो चला है । यद्यपि कहीं २ थोड़ा २ इसका विरोध भी किया जा रहा है, लेकिन सभ्य और शिक्षित समाज के सामने उस विरोध का अब कोई मूल्य नहीं रहा है। जैन समाज में भी यह प्रश्न जोरों से चल रहा है। कुछ लोग इसका विरोध कर रहे हैं । इस विषय पर निर्णय करने के लिये जैन समाज के परम विद्वान, अखिल भारतवर्षीय सनातन धर्म महा सभा द्वारा 'विद्यावारिधि' की पदवी से विभूषित श्रीमान पं० चम्पतराय जी जैन बार-एट-ला, हरदोई ने जैन समाज के सामने कुछ प्रश्न हल करने को श्रीमान साहित्य रल पं० दरबारीलाल जी न्यायतीर्थ द्वारा सम्पादित सुप्रसिद्ध पत्र "जैन जगत" (अजमेर) में प्रकाशित कराये थे। इन प्रश्नों को श्रीयुत "सव्य साची" महोदय ने इसी पत्र में बड़ी योग्यता से हल किया है कि जिसका उत्तर देने में लोग अब तक असफल रहे हैं। हम चाहते हैं कि समझदार जैन समाज पक्षपात को त्याग कर श्रीयुत 'सव्यसाची' की विद्वत्ता से लाभ उठावे । अतः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) "श्री बैरिस्टर साहब के प्रश्नों का उत्तर" जैन जगत (अजमेर) से उद्धत करके ट्रे कृ रूप में जैन समाज के लाभार्थ प्रकाशित किया जाता है। जो जैनी भाई विधवा विवाह के प्रश्न से डर कर दूर भागते हैं उनको चाहिये कि वे कृपा करके इस ट्रैकृको अवश्य पढ़ लेवें। श्राशा की जाती है कि जो जैन बन्धु ज्ञानावरणी कर्मों के उदय से "विधवा विवाह" को बुरा समझते हैं और समाज सुधार के शुभ कार्य में अन्तराय डाल कर पाप कर्म के भागी बनते हैं, उनको इसकी स्वाध्याय कर लेने पर विधवा विवाह की वास्तविकता का सच्चा स्वरूप सहज ही में दर्पणवत् स्पष्ट दीखने लग जावेगा । श्रीयुत "सव्य साची" महोदय द्वारा दिये हुए उत्तर को जैन जगत में पढ़कर कल्याणी नामक किसी बहन की इसी पत्र में एक चिट्ठी छपी है। उस चिट्ठी में बहन कल्याणी ने श्री 'सव्यसाची' जी से कुछ प्रश्न भी किये हैं। इन प्रश्नों का उत्तर भी श्री० 'सव्यसाची' जी ने उक्त 'जैन जगत' में छपवाये हैं । लिहाज़ा, बहन कल्याणी का पत्र व श्रीयुत सभ्य साची द्वारा दिया हुआ इसका उत्तर भी इसी ट्रक में 'जैन जगत' से लेलिया गया है। जो बातें पूर्व में रह गई थीं, वे प्रश्न करके बहन कल्याणी ने लिखवादी हैं । यह बात नहीं है कि यह ट्रैकृ केवल जैनियों के ही लिये लाभदायक हो, बल्कि जैनेतर बन्धु भी इसमें प्रकाशित विधवा विवाह की समर्थक युक्तियों से लाभ उठाकर विरोधियो को मुँह तोड़ उत्तर दे सकते हैं। किस उत्तमता के साथ धर्म चर्चा की गई है, यह बात इसके स्वाध्याय से ही मालूम होगी । -मन्त्री Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म और विधवा विवाह SOM PORN प्रश्न (१)—विधवा विवाह से सम्यग्दर्शन का नाश हो जाता है या नहीं? यदि होता है तो किसका ? विवाह करने कराने वालों का या पूरी जाति का ? उत्तर-विधवा विवाह से सम्यग्दर्शन का नाश नहीं हो सकता । सम्यग्दर्शन अपने आत्मस्वरूप के अनुभव को कहते हैं । अात्मस्वरूप के अनुभव का, विवाह शादी से कोई ताल्लुक नहीं। जब सातवे नरक के नारकी और पाँचों पाप करने वाले प्राणियों का सम्यग्दर्शन नष्ट नहीं होता तब, विधवा विवाह तो ब्रह्मचर्याणुव्रत को साधक है उससे सम्यक दर्शन का नाश कैसे होगा ? विधवा विवाह अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से होता है । अप्रत्याख्यानावरण कषाय से सम्यग्दर्शन का घात नहीं हो सकता। कहा जा सकता है कि विधवा विवाह को धर्म मानना तो मिथ्वात्व कर्म के उदय से होगा, और मिथ्यात्व कर्म सम्यग्दर्शन का नाश करदेगा। इसके उत्तर में इतना कहना बस होगा कि यों तो विधवा विवाह ही क्यों, विवाह मात्र धर्म नहीं है क्योंकि कोई भी प्रवृत्तिरूप कार्य जैन शास्त्रों की अपेक्षा धर्म नहीं कहा जा सकता । यदि कहा जाय कि विवाह सर्वथा प्रवृत्यात्मक नहीं है किन्तु निवृत्यात्मक भी है, अर्थात् विवाह से एक स्त्री में राग होता है तो संसार की बाकी सब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) स्त्रियों से विराग भी होता है। विराग अंश धर्म है, जिसका कारण विवाह है। इस लिए विवाह भी उपचार से धर्म कहलाता है। तो यही बात विधवा विवाह के बारे में भी है । विधवा विवाह से भी एक स्त्री में राग और बाकी सब स्त्रियों में विराग पैदा होता है। इस लिये कुमारी विवाह के समान विधवा विवाह भी धर्म है। यदि कहा जाय कि शास्त्रों में तो कन्या का ही विवाह लिखा है, इस लिए विधवा विवाह, विवाह ही नहीं हो सकता, तो इसका उत्तर यह है कि शास्त्रों में विवाह के सामान्य लक्षण में कन्या शब्द का उल्लेख नहीं है। राजवार्तिक में लिखा है-"सद्वेद्यचारित्रमोहोदयाद्विवहने विवाहः" साता वेदनीय और चारित्र मोहनीय के उदय से "पुरुष का स्त्री को और स्त्री का पुरुष को स्वीकार करना" विबाह है। ऊपर जिस सिद्धान्त से विवाह धर्म-साधक माना गयाहै,उसी सिद्धान्त से विधवा विवाह भी धर्मसाधक सिद्ध हुआ है। इसलिए चरणानुयोग शास्त्र ऐसी कोई आज्ञा नहीं दे सकता जिसका समर्थन करणानुयोग शास्त्र से न होता हो । राजवार्तिक के भाग्य में तथा अन्य ग्रंथों में जो कन्या शब्द का उल्लेख किया गया है, वह तो मुख्यता को लेकर किया गया है। इस तरह मुख्यता को लेकर शास्त्रों में सैंकड़ों शब्दों का कथन किया गया है । इसी विवाह प्रकरण में विवाह योग्य कन्या का लक्षण क्या है, वह भी विचार लीजिए । त्रिवर्णाचार में लिखा है अन्यगोत्रभवां कन्यामनातङ्का सुलतलाम् । प्रायुष्मती गुणान्यां च पितृदत्तां वरेदरः ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) अर्थात्-दूसरे गोत्र में पैदा हुई, नीरोग, अच्छे लक्षण वाली, श्रायुष्मती, गुणशालिनी और पिता के द्वारा दी हुई कन्या को वरण करे । यदि कन्या बीमार हो, या वह जल्दी मर जाय, तो क्या उसका विवाह अधर्म कहलायगा ? जिस कन्या का पिता मर गया हो तो उसे कौन देगा और क्या उसका विवाह अधर्म कहलायगा? यदि यह कहा जाय कि पिता का तात्पर्य गुरुजन से है तो क्या यह नहीं कहा जा सकता कि कन्या का तात्पर्य विवाह योग्य स्त्री से है ? कुमारी के अतिरिक्त भी कन्या शब्द का प्रयोग होता है। दि० जैनाचार्य श्रीधरसेनकृत विश्वलोचन कोष में कन्या शब्द का अर्थ कुमारी के अति. रिक्त स्त्री सामान्य भी किया गया है । 'कन्या कमारिका नार्यो राशिभेदोषधीभिदोः।' (विश्वलोचन, यान्तवर्ग, श्लोक ५ वाँ)। इसी तरह पद्मपुराण में भी सुग्रीव की स्त्री सुतारा को उस समय कन्या कहा गया है जब कि वह दो बच्चों की मां हो गई थी। 'केनोपायेन तां कन्यां लप्स्ये निवृतिदायिनी ॥' सुतारा को कन्या कहने का मतलब यह है कि साहसगति विद्याधर उसे अपनी पत्नी बनाना चाहता था । धर्म संग्रह श्रावकाचार में देवाङ्गनाओं को भी कन्या कहा है एवं चतुर्थ वीथीषु नृत्यशालादयः स्मृताः । परमत्र पनत्यंति वैमाना मरकन्यकाः ।। देवाङ्गनाओं को कन्या इसी लिए कहा जाता है कि वे एक देव के मरने पर दूसरे देव की पत्नी बन सकती हैं । अगर कन्या शब्द का अर्थ कुमारी ही रक्खा जावे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) तो दीक्षान्वय क्रिया में स्त्री पुरुष का पुनर्विवाह संस्कार कैसे होगा ? पुनर्विवाह संस्कारः पूर्वः सर्वोस्य संमतः । सिद्धार्चनां पुरस्कृत्य पल्याः संस्कारमिच्छतः। ___-आदिपुराण ३६ वाँ पर्व । ६० वाँ श्लोक । अर्थात्-जब कोई अजैन पुरुष जैनधर्म की दीक्षा ले तो उसका और उसकी स्त्री का फिर विवाह करना चाहिए । जो लोग कन्या का अर्थ कुमारी ही करेंगे उनके मत से उस पुरुष की पत्नी का विवाह कैसे होगा ? क्या भगवजिनसेना. चार्य के द्वारा बताया गया पुनर्विवाह भी अधर्म है ? इससे साफ़ मालूम होता है कि शास्त्रों में कन्या शब्द कुमारी के लिए नहीं, किन्तु विवाह योग्य स्त्री के लिये आया है। शास्त्रों में विवाह का कथन आदर्श या बहुलता को लेकर किया गया है। सागारधर्मामृत में कन्या के लिए निर्दोष विशेषण दिया गया है। निर्दोष का अर्थ किया है-सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार दोषों से राहत । परन्तु ऐसी बहुत थोड़ी ही कन्याएं होंगी जिनमें सामुद्रिक शास्त्र के अनु. सार दोष न हो । तो क्या उनका विवाह धर्म विरुद्ध कहलायगा ? इस लिये जिस प्रकार कन्या के स्वरूप में उसके अनेक विशेषण अनिवार्य नहीं हैं, उसी प्रकार विवाह के लक्षण में भी कन्या का उल्लेख अनिवार्य नहीं है । क्योंकि कन्या और विधवा में करणानुयोग की दृष्टि में कोई अन्तर नहीं है, जिसके अनुसार कन्या और विधवा के लिये जुदी जुदी दो श्राखाएं बनाई जायं । जो लोग कन्या शब्द को अनुचित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) महत्व देना चाहते हों उनको समझना चाहिये कि कन्या शब्द का अर्थ कुमारी नहीं, किन्तु विवाह योग्य स्त्री है । इस तरह भी विधवा विवाह श्रागम की आज्ञा के प्रतिकूल नहीं है । इस लिये उसका मिध्यात्व के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है जिससे वह सम्यग्दर्शन का नाशक माना जा सके । प्रश्न ( २ ) - पुनर्विवाह करने वाले सम्यक्त्वी होने पर स्वर्ग जा सकते हैं या नहीं ? उत्तर — जा सकते हैं । जब पुनर्विवाह ब्रह्मचर्य अणुव्रत का साधक है तब उससे स्वर्ग जाने में क्या बाधा है ? स्वर्ग तो मिथ्यादृष्टि भी जाते हैं, फिर विधवा विवाह करने वाला तो अपनी पत्नी के साथ रहकर सम्यग्दृष्टि और छटवीं प्रतिमा तक देशव्रती श्रावक भी हो सकता है और पीछे मुनिव्रत ले ले तो मोक्ष को भी जा सकता है । विधवा विवाह मोक्षमार्ग में उतना ही बाधक है जितना कि . कुमारी विवाह ! स्वर्ग में दोनों ही बाधक नहीं हैं। दोनों से सोलहवें स्वर्ग तक जा सकता है। राजा मधुने चन्द्राभा को रख लिया था, फिर भी वह मरकर सोलहवें स्वर्ग गई । पहिले प्रश्न के उत्तर से इस प्रश्न के उत्तर पर पूरा प्रकाश पड़ जाता है प्रश्न ( ३ ) – विधवा विवाह से तिर्यञ्च और नरक गति का बंध होता है या नहीं ? उत्तर—विधवाविवाह से तिर्यञ्च और नरक गति का बंध कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि तिर्यञ्च गति और नरक गति अशुभ नाम कर्म के भीतर शामिल हैं । श्रशुभ नाम कर्म के बंध के कारण योग वक्रता और विसंवादन हैं। "योग वक्रता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः" अर्थात् मन, वचन, काय की कुटिलता से अशुभ नाम कर्म का बन्ध होता है । विधवा विवाह में मन, वचन, काय की कुटिलता का कोई सम्बन्ध नहीं है,बल्कि प्रत्येक बात की सफाई अर्थात् सरलता है । इस लिए अशुभ नाम कर्म का बन्ध नहीं हो सकता। हाँ, जो विधवा-विवाह के विरोधी हैं, वे अधिकतर नरकगति और तिर्यश्चगति का बन्ध करते हैं, क्योंकि उन्हें विसंवादन करना पड़ता है। विसंवादन से अशुभ नाम कर्म का बन्ध होता है । राजवार्तिक में विसंवादन का खुलासा इस प्रकार किया है सम्यगभ्युदयनि श्रेयसार्थासु क्रियासु प्रवर्तमानमन्यं कायवाङ्मनोभिर्विसंवादयति मैवं कार्पोरेवं कुर्विति कुटिलतयो प्रवर्तन विसंवादनं । अर्थात् कोई मनुष्य स्वर्गमोक्षोपयोगी क्रियाएँ कर रहा है उसे रोकना विसंवाद है । यह तो सिद्ध ही है कि विधवा विवाह अणुव्रत का साधक होने से स्वर्गमोक्षोपयोगी है । जो विधवाएं पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकती हैं, उन्हें विधवा विवाह के द्वारा अविरति से हटा कर देशविरति दीक्षा देना है। इस दीक्षा को जो रोकते हैं, धर्म विरुद्ध बताते हैं, बहिष्कारादि करते हैं, वे पूज्यपाद अकलंक देव आदि के अभिप्राय के अनुसार विसंवाद करते हैं जिससे नरकगति और तिर्यश्चगति का बन्ध होता है। यदि नरकगति और तियंचगति से नरकायु और तिर्यचायु की विवक्षा हो तो इनका भी बन्ध विधवा विवाह से नहीं हो सकता, क्योंकि बहुत प्रारंभ और बहुत परिग्रह से नरकायु का बन्ध होता है । विधवा विवाह में कुमारी विवाह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( है ) की बनिस्बत आरम्भ और परिग्रह अधिक है ही नहीं, तब वह नरकायु का कारण कैसे हो सकता है ? तिर्यञ्चाय के बन्ध का कारण है मायाचार । सो मायाचार तो विधवा विवाह के विरोधी ही बहुत करते हैं - उन्हें गुप्त पाप छिपाना पड़ते हैंइसलिये वे तिर्यञ्चायु का बन्ध श्रवश्य ही करते हैं । विधवा विवाह के पोषकों को मायाचारी से क्या मतलब ? इस लिए वे तिर्यञ्चाय का बन्ध नहीं करते । हाँ यह बात दूसरी हैं कि कोई विधवा विवाह करने के बाद पाप करे जिससे इन अशुभ कर्मों का बन्ध हो जाय । लेकिन वह बन्ध विधवा विवाह से न होगा, किन्तु पाप से हागा | कुमारी विवाह के बाद और मुनी वेष लेने के बाद भी तो लोग बड़े बड़े पाप करते हैं। इससे कुमारी विवाह और मुनिवेष बुरा नहीं कहा जा सकता। इसी तरह विधवा विवाह भी बुरा नहीं कहा जा सकता । प्रश्न ( ४ ) – यदि विधवा विवाह पाप कार्य है तो साधारण व्यभिचार से उसमें कुछ अन्तर होता है या नहीं ? यदि हां, तो कितना और कैसा ? 1 उत्तर- जब विधवा विवाह पाप ही नहीं है तो साधारण व्यभिचार से उसमें अन्तर दिखलाने की क्या ज़रूरत है ? . खैर ! दोनों में अन्तर तो है, परन्तु वह 'कुछ' नहीं, 'बहुत' है । विधवा विवाह श्रावकों के लिये पाप नहीं है और व्यभिचार पाप है । वर्तमान में व्यभिचार को हम तीन श्रेणियों में बांट सकते हैं - ( १ ) परश्री सेवन, (२) वेश्या सेवन और (३) विवाह के बिना ही किसी स्त्री को पत्नी बना लेना । पहिला सबसे बड़ा है; दूसरा उससे छोटा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) है। सोमदेव प्राचार्य के मत से वेश्यासेवी भी ब्रह्मचर्याणुवती हो सकता है * परन्तु परस्त्री सेवी नहीं हो सकता। इससे वेश्या सेवन हलके दर्जे का पाप सिद्ध होता है। किसी स्त्री को विवाह के बिना ही पत्नी बना लेना वेश्यासेवन से भी कम पाप है, क्योंकि वेश्यासेवी की अपेक्षा रखैल स्त्री वाले की इच्छाएँ अधिक सीमित हुई हैं। विधवा विवाह इन तीन श्रेणियों में से किसी भी श्रेणी में नहीं आता, क्योंकि ये तीनो विवाह से कोई सम्बन्ध नहीं रखते। कहा जा सकता है कि विधवा विवाह परस्त्री सेवन में ही अन्तर्गत है, क्योंकि विधवा परस्त्री है । इसके लिये हमें यह समझ लेना चाहिये कि परस्त्री किसे कहते हैं और विवाह क्यों किया जाता है ? अगर कोई कुमारी, विवाह के पहले ही संभोग करे तो वह पाप कहा जायगा या नहीं ? यदि पाप नहीं है तो विवाह की ज़रूरत ही नहीं रहती । यदि पाप है तो विवाह हो जाने पर भी पाप कहलाना चाहिये । यदि विवाह हो जाने पर पाप नहीं कहलाता और विवाह के पहिले पाप कहलाता है तो इससे सिद्ध है कि विवाह, व्यभिचार दोष को दूर करने का एक अव्यर्थ साधन है । जो कुमारी आज परस्त्री है और जो पुरुष आज पर पुरुष है, वे ही विवाह हो जाने पर स्वस्त्री और स्वपुरुष कहलाने लगते हैं । इससे मालूम होता है कि कर्मभूमि में स्वस्त्री और स्वपुरुष जन्म से पैदा । नहीं होते, किन्तु बनाये जाते हैं। कुमारी के समान विधवा * वधूवित्तस्त्रियो मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्रऽतजने । मातास्वसा तनूजेति मतिर्बह्म गृहाश्रमे ॥ --यशस्तिलक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) भी स्वस्त्री बनाई जा सकती है। विवाह के पहिले विधवा परस्त्री है, परन्तु विवाह के बाद स्वस्त्री हो जायगी । तब उसे व्यभिचार कैसे कह सकते हैं ? जब विवाह में व्यभिचार दोष के अपहरण की ताकत है. और कन्याओं के विषय में उसका प्रयोग किया जा चुका है तो विधवाओं के विषय में क्यों नहीं किया जा सकता है ? कहा जा सकता है कि स्त्री ने जब एक पति (स्वामी) बना लिया तब वह दूसरा पति कैसे बना सकती है ? इसका उत्तर यही है कि जब पुरुष, एक पत्नी (स्वामिनी) के रहने पर भी दूसरी पत्नी बना लेता है तो स्त्री विधवा होने पर भी क्यों नहीं बना सकती ? मुनि न बन सकने पर जिस प्रकार पुरुष दूसरा विवाह कर लेता है,उसी प्रकार स्त्री भी आर्यिका न बन सकने पर दूसरा विवाह कर सकती है । स्त्री किसी की सम्पत्ति नहीं है । अगर सम्पत्ति भी मान ली जाय तो सम्पत्ति भी मालिक से वश्चित नहीं रहती है। एक मालिक मरने पर तुरन्त उसका दूसरा मालिक बन जाता है। दूसरा मालिक बनाना या बनना कोई पाप नहीं है। इससे साफ़ मालूम होता है कि विधवा विवाह और व्यभिचार में धरती आसमान का अन्तर है जैसे कि कुमारी विवाह और व्यभिचार में है। प्रश्न (५)--वैश्या और कुशीला विधवा के आन्तरिक भावों में मायाचार की दृष्टि से कुछ अन्तर है या नहीं? उत्तर-यद्यपि मायाचार सम्बन्धी अतरंग भावों का निर्णय होना कठिन है, फिर भी जब हम वेश्या सेवन और परस्त्री सेवन के पाप में तरतमता दिखला सकते हैं तो इन दोनों के मायाचार में भी तरतमता दिखाई जा सकती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (· १२ ) है । कुशीला विधवा का मायाचार बहुत अधिक है। वेश्या व्यभिचारिणी के वेश में व्यभिचार करती है, किन्तु कुशीला तो पतिव्रता के वेश में व्यभिचार करती है । वेश्या को अपने पाप छिपाने के लिये विशेष पाप नहीं करना पड़ते, परन्तु कुशीला को तो-छोटे मोटे पापों की बात छोड़िये-भ्रूणहत्या सरीखे महान पाप तक करना पड़ते हैं। कहा जा सकता है कि वेश्या को तो पाप का थोड़ा भी भय नहीं है, परन्तु कुशीला को है तो इस प्रश्न की मीमांसा करने के पहिले यह ध्यान में रखना चाहिये कि यहाँ प्रश्न मायाचार का है-वेश्या और कुशीला की तरतमता दिखलाना नहीं है किन्तु मायाचार की तरतमता दिखलाना है । सो मायाचार तो कुशीला विधवा का अधिक है, साथ ही साथ भयङ्कर भी है। इन दोनों में कौन बुरी है और कौन भली, इसके उत्तर में यही कहना चाहिये कि दोनों बुरी हैं । हाँ, हम पहिले कह चुके हैं कि परस्त्री सेवन से वेश्या सेवन में कम पाप है इसलिये कुशीला विधवा, वेश्या से भी बुरी कहलाई । कुशीला को जो पापका भय बतलाया जाता है वह पाप का भय नहीं है, किन्तु स्वार्थनाश का डर है । व्यभिचार प्रकट होजाने पर लोकनिंदा. होगी, अपमान होगा, घर से निकाल दी जाऊंगी, सम्पत्ति छिन जायगी,आदि बातों का डर होता है; यह पापका डर नहीं है। अगर पापका डर होता तो वह ऐसा काम ही क्यों करती? और किया था तो छिपाने के लिये फिर और भी बड़े पाप क्यों करती ? खैर ! इन बातों का इस प्रश्नसे विशेष सम्बन्ध नहीं है। हां, इतना निश्चित है कि कुशीला विधवो का मायाचार वेश्या से अधिक है और कुशीला विधवा अधिक भयानक है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न (६)-ऐसी कुशीला, मायाचारिणी, भ्रणहत्या. कारिणी, विधवा को तीव्र पाप (नरकायु आदि ) का बन्ध होता है या नहीं ? और उसके सहकारियों को भी कृत कारित अनुमोदन के कारण तीव्र पापका बन्ध होता है या नहीं? । उत्तर-ऐसे पापियों को तीव्र पाप का बंध न होगा तो किसे होगा ? साथ में इतना और समझना चाहिये कि विधवाविवाह के विरोधी भी ऐसे पापियों में शामिल होते हैं, क्योंकि उनकी कठोरताओं और पक्षपातपूर्ण नियमों के कारण ही स्त्रियों को ऐसे पाप करने पड़ते हैं । यद्यपि विधवाविवाह के विरोधियों में सभी लोग भ्रूणहत्याओं को पसन्द नहीं करते फिर भी उनमें फी सदी नव्वे ऐसे हैं जो भ्रणहत्या पसन्द करेंगे, परन्तु विधवाविवाह का न्यायोचित मार्ग पसन्द न करेंगे। अगर हम खूब स्वादिष्ट भोजन करें और दूसरों को एक टुकड़ा भी न खाने दें तो उन्हें स्वाद के लिये नहीं तो क्षधा शान्ति के लिये चोरी करना ही पड़ेगी। और इसका पाप हमें भी लगेगा। इसी तरह भ्रूणहत्या का पाप विधवा विवाह के विरोधियों को भी लगता है। प्रश्न (७) वर्तमान समय में कितनी विधवाएँ पूर्ण पवित्रता से वैधव्य व्रत पालन कर सकती हैं ? उत्तर-यो तो भव्यमात्र में मोक्ष जाने तक की ताकत है, लेकिन अवस्था पर विचार करने से मालूम होता है कि वृद्ध विधवाओं को छोड़कर बाकी विधवाओं में फीसदी पाँच ही ऐसी होगी जो पवित्रता से वैधव्य का पालन कर सकती है।। विधुरों में कितने विधुर जीवन पर्यन्त विधुरत्व का पालन करते हैं ? विधवाओं के लिये भी यही बात है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न (८)-ज्यभिचार से किन २ प्रकृतियों का बन्ध होता है और विधवा-विवाह से किन किन प्रकृतियों का बन्ध होता है ? उत्तर-व्यभिचार से चारित्र मोहनीय का तीव्र बन्ध होता है और विधवाविवाह से कुमारीविवाह के समान चारित्र मोह का अल्प बन्ध होता है । व्यभिचार से पुण्यबन्ध नहीं होता, परन्तु विधवाविवाह से पुण्यबन्ध होता है । और वर्तः मान परिस्थिति में तो कुमारी विवाह से भी अधिक पुण्यबन्ध विधवाविवाह से होता है, क्योंकि वर्तमान में जो विधवा विवाह करता है वह भ्रणहत्या और व्यभिचार आदि को रोकने की कोशिश करता है, स्त्रियों के मनुष्योचित अधिकार दिलाता है । इस प्रकार के करुणा तथा परोपकार के भावोंसे उसे तीव्र पुण्य का बन्ध होता है, जो कि व्यभिचारी के और विधवाविवाह के विरोधियों के नहीं हो सकता। विधवाविवाह से दर्शनमोह का बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि विधवाविवाह धर्मानुकूल है। विधवाविवाह में योग देने वाला धर्म के मर्म को जान जाता है, स्याद्वाद के रहस्य से परिचित हो जाता है। येही तो सम्यक्त्व के चिन्ह हैं । विधवा विवाह के विरोधी एकान्तमिथ्यात्वी हैं, वे श्रुत और धर्म का अवर्णवाद करते हैं इसलिये उन्हें तीव्र मिथ्यात्व का बन्ध होता है । अन्य पाप प्रकृतियों का तो कहना ही क्या है ? प्रश्न (8)-विवाह के बिना, काम लालसा के कारण जो संक्लेश परिणाम होते हैं, उनमें विवाह होने से कुछ न्यूनता आती है या नहीं? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) उत्तर - 'कुछ' नहीं, किन्तु 'बहुत' न्यूनता आती है । विवाह के बिना तो प्रत्येक व्यक्ति को देख कर पापवासना जाग्रत होती है और वह वासना सदा ही जाग्रत रहती है; किंतु विवाह से तो एक व्यक्ति को छोड़कर बाक़ी सबके विषय में उसकी वासना मिट जाती है और वह वासना भी सदा जाग्रत नहीं रहती । कहा जा सकता है कि जिनकी काम लालसा श्रतिप्रबल है उनकी विवाह होने पर भी शान्त नहीं होती। अनेक विवा हित पुरुष और सधवा स्त्रियाँ व्यभिचारदूषित पायी जाती हैं, यह ठीक है। किन्तु विवाह तो व्यभिचार को रोकने का उपाय है । उपाय, सौ में दस जगह असफल भी होता है, किन्तु इससे वह निरर्थक नहीं कहा जा सकता । चिकित्सा करने पर भी लोग मरते हैं, शास्त्री बन करके भी धर्म को नहीं समझते, मुनि बन करके भी बड़े २ पाप करते हैं, इससे चिकित्सा आदि निरर्थक नहीं कहे जा सकते । यदि विवाह होने पर भी किन्हीं लोगों की काम वासना शान्त नहीं होती तो इससे सिर्फ विधवाविवाह का ही निषेध कैसे हो सकता है ? फिर तो विवाह मात्र का निषेध करना चाहिये और समाज से कुमार, कुमारियों के विवाह की प्रथा उड़ा देना चाहिये, क्योंकि व्यभिचार तो विवाह के बाद भी होता है । यदि कुमार कुमारियों के विवाह की प्रथा का निषेध नहीं किया जा सकता तो विधवाविवाह का भी निषेध नहीं किया जा सकता । एक महाशय ने लिखा है - "वास्तव में विवाहका उहेश्य काम लालसा की निवृत्ति नहीं है। विवाह इस जघन्य एवं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) कुत्सित उद्देश्य से सर्वथा नहीं किया जाता है, किन्तु वह मोक्ष मार्गोपसेवी स्वपर हितकारक शुद्ध संतान की उत्पत्ति के लिये ही किया जाता है । इस लिये वह शास्त्रविहित, मोक्षमार्ग साधक, धर्म कार्य माना गया है । इस लिये विवाह होने पर काम लालसा के संक्लेश परिणामों की निवृत्ति उतना ही गौण कार्य है जितना किसान को भूसे का लाभ ।” जो लोग विवाह का उद्देश्य काम लालसा की निवृत्ति नहीं मानते हैं और काम लालसा की निवृत्ति को जघन्य और कुत्सित उद्देश्य समझते हैं उनकी विद्वत्ता पर हमें दया आती है । ऐसे लोग जब कि जैन धर्म की वर्णमाला भी नहीं समझते तब क्यों गहन विषयों में टांग अड़ाने लगते हैं ? क्या हम पूछ सकते हैं कि 'काम लालसा की निवृत्ति' यदि जघन्य और कुत्सित है तो क्या काम लालसा में प्रवृत्ति करना अच्छा है ? सच है, जो लोग एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी श्रादि स्त्रियों के साथ मौज उड़ा रहे हैं, वे काम लालसा के त्याग को कुत्सित और जघन्य समझें तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? ख़ैर, अब हमें यह देखना चाहिये कि विवाह का उद्देश्य क्या है ? विवाह गृहस्थाश्रम का मूल है गृहस्थाश्रम धर्म, अर्थ, काम तीनों पुरुषार्थों का साधक है। काम लालसा की जितनी निवृत्ति होती है उतना अंश धर्म है; जितनी प्रवृत्ति होती है उतना काम है । अर्थ इसका साधक है। इससे साफ़ मालूम होता है कि विवाह काम - लालसा की श्रांशिक निवृत्ति के लिये किया जाता है । शास्त्रकार कहते हैं 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याज्यानजस्त्रं विषयान् पश्यतोऽपि जिनाया। मोहात्त्यक्तुम शक्तस्य गृहिधर्मोनुमन्यते ॥ अर्थात्-जिनेन्द्र की प्राशा से जो विषयों को छोड़ने योग्य समझता है, किन्तु फिर भी चारित्र मोह कर्मकी प्रबलता से उनका त्याग नहीं कर सकता, उसको गृहस्थ धर्म धारण करने की सलाह दी जाती है। इससे साफ मालूम होता है कि विवाह लड़कों बच्चों के लिए नहीं, किन्तु मुनि बनने की असमर्थता के कारण किया जाता है। हमारे जैन पंडितों ने जब से वैदिक धर्म की नकल करना सीखा है, तब से वे धर्म के नाम पर लड़को बच्चों की बातें करने लगे हैं । वैदिक धर्म में तो अनेक ऋण माने गये हैं जिनका चुकाना प्रत्येक मनुष्य को आवश्यक है। उनमें एक पितृ ऋण भी है। उनके ख़याल से संतान उत्पन्न कर देने से पितृ ऋण चुकजाता माना गया है किन्तु जैन धर्म में ऐसा कोई पितृ ऋण नहीं माना गया है जिसके चुकाने के लिये सन्तानोत्पत्ति करना धर्म कहलाता हो । विवाह का मुख्य उद्देश्य काम लालसा की उच्छखलता को रोकना है । हां, ऐसी हालत में सन्तान भी पैदा हो जाती है। यह भी अच्छा है, परंतु यह गौण फल है । सन्तानोत्पत्ति और काम लालसा की निवृत्ति, इनमें गौण कौन है और मुख्य कौन है, इसको निबटारा इस तरह हो जायगा-मान लीजिए कि किसी मनुष्य में मुनिव्रत धारण करने की पूर्ण योग्यता है । ऐसी हालत में अगर वह किसी प्राचार्य के पास जावे तो वह उसे मुनि बनने की सलाह देंगे या श्रावक बनकर पुत्रोत्पत्ति करने की सलाह देंगे? शास्त्रकार तो इस विषय में यह कहते हैंShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) बहुशः समस्त विरतिं प्रदर्शितां यो न जातु गृहणाति । तस्यैक देश विरतिः कथनीयानेन बीजेन ॥ यो यति धर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्म मल्पमतिः । तस्य भग्वत्प्रवचने, प्रदर्शितं निग्रहस्थानं ॥ अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽति दूरमपिशिष्यः । अपदेऽपि संप्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ॥ महावत का उपदेश देने पर जो महावत ग्रहण न कर सके उसे अणुव्रत का उपदेश देना चाहिये । महाव्रत का उपदेश न देकर जो अणुव्रत का उपदेश देता है वह निग्रहीत है। क्योंकि अगर किसी के हृदय में मुनिव्रत धारण करने का उत्साह हो और बीच में ही अणुव्रत का उपदेश सुनकर वह सन्तुष्ट हो जाय तो उसके महादत पालन करने का मौका निकल जायगा। इससे साफ़ मालूम होता है कि प्राचार्य, अणुव्रत धारण करने की सलाह तभी देते हैं जब कोई महाव्रत न पाल सकता हो । अणुव्रत लड़को बच्चों के लिए नहीं,किंतु महावत पालन करने की असमर्थता के कारण किया जाता है । अणुव्रत के साथ आंशिक प्रवृत्ति होने से सन्तान भी उत्पन्न हो जाती है। यह अणुव्रत का गौणफल है, जैसे किसान के लिये भूसा। लड़कों बच्चों को जो मुख्यता देदी जाती है उसका कारण है समाज का लाभ । व्रत से वती का कल्याण होता है और सन्तान से समाज का । इस लिये व्रती को व्रत मुख्य फल है और सन्तान गौण फल है। दूसरे लोगों को सन्तान ही मुख्य है । जैसे-अन्न किसान को मुख्य है भूसा गौण । किन्तु किसान के घर रहने वाले बैलों को तो भूसा ही मुख्य है और अन्न गौण, क्योंकि बैलों को तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) भूसा ही मिलेगा, अन्न नहीं । व्रती के व्रत का लाभ तो वूती ही पावेगा. दूसरों को नहीं मिल सक्ता, किन्तु उसकी संतान से दूसरे भी लाभ उठावेंगे, समाज की स्थिति कायम रहेगी इस लिये सामाजिक दृष्टि से सन्तान मुख्य फल है, परन्तु धार्मिक दृष्टि से व्रत ही मख्य फल है, पुत्रादिक नहीं । धार्मिक दृष्टि से 'पुत्तसमो वैरिओणत्थि' (पुत्र के समान कोई बैरी नहीं है ) इत्यादि वाक्यों से संतान की निन्दा हो की गई है। इस लिये धार्मिक दृधि से संतान के लिये विवाह मानना अनुचित है। वह काम वासना को सीमित करने के लिए किया जाता है। इसी बात को दूसरे स्थान पर और भी अच्छे शब्दों में कहा है। विषय विषमाशनोत्थित मोहज्वर जनिततोव तृष्णस्य । निःशाक्तिकस्य भवतः प्रायः पेयात्रु पक्रमः श्रेयान् ॥ _ "विषय रूपी अपथ्य भोजन से उत्पन्न हुआ जो मोह रूपी ज्वर, उस ज्वर से जिसको बहुत ही तेज़ प्यास लग रही है, और उस प्यास को सहने की जिसमें तोकत नहीं है उसको कुछ पीने योग्य श्रोषध देना अच्छा है। मतलब यह है कि उसे प्यास तो इतनी लगी है कि लोटे दो लोटे पानी भी पी सकता है, परन्तु वैद्य समझता है कि ऐसा करने से बीमारी बढ़ जायगी । इसलिए वह पीने योग्य औषध देता है जिससे वह प्यास न बढने पावे । इसी तरह जिसकी विषय की आकांक्षा बहुत तीव है, उसको विवाह द्वारा पेय औषध दी जाती है जिससे प्यास शांत रहे और रोग न बढ़ने पावे । मतलब यह की जैन शास्त्रों के अनुसार विवाह का मुख्य उद्देश्य विषय वासना को सीमित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) करना है। यह बात विधवा विवाह से भी होती है । अगर किसी विधवा बाई को विषय वासना रूपी तीव प्यास लगी है तो उसे विवाह रूपी पेय औषध क्यों न देनी चाहिये ? मर्द तो औषध के नाम पर लोटे के लोटे गटका करें और विधवाओं को एक बूंट औषध भी न दी जाय, यह कहाँ की दया है ? कहाँ का न्याय है ? कहाँ का धर्म है ? विवाह से जिस प्रकार पुरुषों के संक्लेश परिणाम मंद होते हैं, उसी प्रकार स्त्रियोंके भी होते हैं। फिर पुरुषों के साथ पक्षपात और स्त्रियों के साथ निर्दयता का व्यवहार क्यों ? धर्म तो पुरुषों की ही नहीं, स्त्रियों की भी सम्पत्ति है। इस लिये धर्म ऐसा पक्षपात कभी नहीं कर सकता। प्रश्न (१०)-प्रत्येक बाल विधवा में तथा प्रौढ विधवा में भी आजन्म ब्रह्मचर्य पालने की शक्ति का प्रगट होना अनिवार्य है या नहीं ? उत्तर-नहीं। यह बात अपने परिणामों के ऊपर निर्भर है। इसलिये जिन विधवाओं के परिणाम गृहस्थाश्रम से विरक्त न हुए हों उन्हें विवाह कर लेना चाहिये । कहा जा सकता है कि"जैसे मुनियों में वीतरागता आवश्यक होने पर भी सरागता आजाती है,उसी प्रकार विधवाओं में भी होसकती है, लेकिन शीलभ्रष्ट ज़रूर कहलायँगी। मुनि भी सरागता से भ्रष्ट माना. जाता है।" यह बात ठीक है। शक्ति न होने से हम अधर्म को धर्म नहीं कह सकते। परन्तु यहाँयह बात विचारणीय है कि जो कार्य मुनिधर्मसे भ्रष्ट करता है क्या वही श्रावकधर्म से भी भ्रष्ट करता है ? विवाह करने से प्रत्येक व्यक्ति मुनिधर्म से भ्रष्ट होजाता है, परन्तु क्या विवाह से श्रावक धर्म भी.छूट जाता है ? क्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) विवाह करने वाले का अणुव्रत सुरक्षित नहीं रह सकता ? हमारे ख़याल से तो कन्या भी अगर श्रार्थिका होकर फिर विवाह करे तो भ्रष्ट है और विधवा अगर आर्यिका आदि की दीक्षा न लेकर विवाह करले तो भ्रष्ट नहीं है । यह ठीक है कि पति के मरजाने पर स्त्री वैधव्यदीक्षा ले तो अच्छा है, परन्तु लेना न लेना उसकी इच्छा पर निर्भर है । यह नहीं हो सकता कि वह तो वैधव्यदीक्षा लेना न चाहे और हम ज़बरदस्ती उसके सिर दीक्षा मढ़दे । स्त्री के समान पुरुष का भी कर्तव्य है कि वह पत्नी के मर जाने पर दीक्षा लेले । बुद्धों को तो ख़ासकर मुनि बन जाना चाहिये । परन्तु आज कितने वृद्ध मुनि बनते हैं ? कितने विधुर दीक्षा लेते हैं ? जो लोग मुनि नहीं बनते और दूसरा विवाह करलेते हैं वे क्या भ्रष्ट कहे जाते हैं? अगर वे भ्रष्ट नहीं हैं, तो विधवाएँ भी भ्रष्ट नहीं कही जा सकतीं। पुरुषों का शीलभङ्ग तभी कहलायगा जबकि वे विवाह न करके संभोग करें । इसी तरह विधवाएँ शीलभ्रष्ट तभी कहलावेंगी जबकि वे विवाह न करके संभोग करें या उसकी लालसा रक्खें । प्रश्न ( ११ ) – धर्मविरुद्ध कार्य, किसी हालत में (उससे भी बढ़कर धर्मविरुद्ध कार्य अनिवार्य होने पर ) कर्तव्य हो सकता है या नहीं ? उत्तर—जैनधर्म का उपदेश अनेकान्त की अपेक्षासे है। जो कार्य किसी अपेक्षासे धर्मविरुद्ध है वही दूसरी अपेक्षा से धर्मानुकूल भी है। मुनि के लिये विवाह धर्मविरुद्ध है, श्रावक के लिये धर्मानुकूल हैं। पति के मरने पर जिसने आर्यिका की दीक्षा लो है उसके लिये विवाह धर्मविरुद्ध है और जिस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) विधवा के व्रत, सप्तम प्रतिमासे नीचे हैं उसके लिये विवाह धर्मानुकूल है । श्रावक अगर आहार दान दे तो धर्मानुकूल है और मुनि अगर ऐसा करे तो धर्मविरुद्ध है । भाषा गुप्ति का पालन करनेवाला (मौनव्रती) अगर सच बात भी बोले तोधर्म विरुद्ध है और समिति का पालन करने वाला बोले तो धर्मानुकूल है । मतलब यह है कि जैनधर्म में कोई कार्य सर्वथा धर्म: विरुद्ध नहीं कहा जाता । उसके साथ अपेक्षा रहती है। यद्यपि जैनधर्म में यह नहीं कहा गया है कि एक अनर्थ के लिये दूसरा अनर्थ करो; फिर भी इतनी अाज्ञा अवश्य है कि बहुत अनर्थ को रोकने के लिये थोड़े अनर्थ की आवश्यक्ता हो तो उसका प्रयोग करो। दूसरे अनर्थ का निषेध है,परन्तु उस अनर्थ के कम करने का निषेध नहीं है-जैसे एक आदमी सब तरह के मांस खाता था, उसने काक मांस छोड़ दिया तो यद्यपि वह अन्य मांस खाता रहा, फिर भी जितनो अनर्थ उसने रोका उतना ही अच्छा किया। नासमझ व्यक्ति जैनधर्म के ऐसे कथन को युक्तिप्रमाणशून्य प्रमत्त उपदेश समझते हैं,परन्तु जैनधर्म के उपदेश में कोरी लढवाज़ी नहीं है-उसके भीतर वैज्ञानिक विचार पद्धति मौजूद है। अगर कोई कहे कि क्या बड़े बड़े पापों की अपेक्षा छोटे छोटे पाप ग्राह्य हैं ? तो जैनधर्म कहेगा-अवश्य । सप्तव्यसन का सेवी अगर सिर्फ व्यभिचारी रहजोय तो अच्छा (यद्यपि व्यभिचार पाप है); व्यभिचारी अगर परस्त्री का त्याग कर सिर्फ वेश्या सेवी रहजाय तो अच्छा है (यद्यपि वेश्या सेवन पाप है); वेश्या सेवन का भी त्याग करके अगर कोई स्व. स्त्री सेवी ही रहजाय तो अच्छा ( यद्यपि महाव्रत की अपेक्षा स्वस्त्री सेवन भी पाप है); यह विषय इतना स्पष्ट है कि ज्यादा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) प्रमाण देने की ज़रूरत नहीं। जैनधर्म का मामूली विद्यार्थी भी कह सकता है कि जो कार्य एक व्यक्ति के लिये धर्मविरुद्ध है वही दूसरे के लिये धर्मानुकूल भी हो सकता है। प्रश्न (१२)-छोटे २ दुधमुंहे बच्चों का विवाह धर्म विरुद्ध है या नहीं? उत्तर-दुधमुंहे अर्थात् विवाह के विषय में नासमझ बच्चों का विवाह नहीं हो सकता । समाज के चार आदमी भले ही उसे विवाह मान लें, परन्तु धर्मशास्त्र उसे विवाह नहीं मानता । जो लोग उसे विवाह मानते हैं उनका मानना धर्म विरुद्ध है । अगर ऐसे विवाह हो जाये तो उन्हें विवाह न मानकर उचित अवस्था में उनका फिर विवाह करना चाहिये। अन्यथा उनकी सन्तान कर्ण के समान नाजायज़ सन्तान कह'लावेगी। विवाह के लिये वर कन्या में दो बातें आवश्यक हैंविवाह के विषय में अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान और चारित्र मोहनीय के उदय से होने वाले राग परिणाम अर्थात् वह कामलालसा जो कि मुनि, आर्यिका अथवा उच्चवती न बनने दे । इन दो बातों के बिना तीन लोक के समस्त प्राणी भी अगर किसी का विवाह करें तो भी नहीं हो सकता । जो लोग इन दो बातो के बिना विवाह नाटक कराते हैं वे धर्मद्रोही हैं। छोटी उमर में शास्त्रानुसार नियतविधि के अनुसार विवाह का नाटक हो सकता है, परन्तु विवाह नहीं हो सकता। क्योंकि जब उपादान कारण का सहयोग प्राप्त नहीं है तब सिर्फ निमित्तों के ढेर से क्या होसकता है ? विवाह के लिये शास्त्रा. नुसार नियत विधि की आवश्यकता अनिवार्य नहीं है, परन्तु उपयुक्त दो बातें अनिवार्य हैं । गान्धर्न विवाह में शास्त्रानुShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४ ) सार नियत विधि नहीं होती, फिर भी वह विवाह है और उस विवाह से उत्पन्न संतान मोक्षगामी तक होती है। इसी विवाह से रुक्मणीजी कृष्णजी की पटरानी बनी थीं और उनसे तद्भव मोक्षगामी प्रद्यम्न पैदा हुए थे। इसलिये शास्त्रानुसार विधि हो या न हो, परन्तु जहाँ पर उपयुक्त दो बातें होगी वहाँ पर धर्मानुकूलता है और उनके बिना धर्मविरुद्धता है। प्रश्न (१३)-विधवा होने के पहिले जिन्होंने पत्नीत्व का अनुभव नहीं किया, उन्हें विधवा कहना कहाँ तक उचित है ? उत्तर-१२ में प्रश्न के उत्तर में इसका भी उत्तर प्रो सकता है । वहाँ कही हुई दो बातों के बिना जो विवाहनाटक होजाता है उसके द्वारा उन दोनों बच्चों को पति पत्नीत्व का अनुभव नहीं होता। वे नाटकीय पति पत्नि कहलाते हैं । ऐसी हालत में अगर वह नाटकीय पति मरजाय तो वह नाटकीय पत्नी नाटकीयविधवा कहलायेगी। पत्नीत्व के व्यवहार और पत्नीत्व के अनुभव में बहुत अन्तर है । व्यवहार के लिये तो चारों निक्षेप उपयोगी हो सकते हैं, परन्तु अनुभव के लिये सिर्फ भावनिक्षेप ही उपयोगी है। बालविवाह के पति-पत्नी व्यवहार में स्थापना निक्षपसे काम लिया जाता है। जो लोग उसे भाव निक्षेप समझ जाते हैं अथवा व्यवहार और अनुभव के अन्तर को नहीं समझते, उनकी विद्वत्ता (१) दयनीय है। प्रश्न (१४)-क्या पत्नी बनने के पहिल भी कोई विधवा हो सकती है ? और पत्नी बनकर व्रत ग्रहण करने में वती के भावों की ज़रूरत है या नहीं? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) उत्तर-पत्नी बनने के पहिले कोई विधवा नहीं हो सकती। इस लिये यह दृढ़ता से कहा जा सकता है कि जिन बालिकाओं को लोग विधवा कहते हैं वे विधवा नहीं हैं कयोंकि बाल्यावस्था का विवाह उपर्यत दो बातों के न होने से विवाह ही नहीं है । जिसका विवाह ही नहीं उसमें न तो पत्नीपन आ सकता है न विधवापन । वत ग्रहण करने में बूती के भावों की ज़रूरत है-भाव के बिना क्रिया किसी काम की नहीं । शास्त्रकार तो कहते हैं-'यस्मात्कियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः' अर्थात् भावरहित क्रियाओं का कुछ फल नहीं होता । अर्थात् भावशन्य क्रियाओं के द्वारा शुभाशुभ बंध और संवर आदि नहीं होते। जो लोग यह कहते हैं कि 'अनेक संस्कार बाल्यावस्था में ही कराये जाते हैं इस लिये भावों के बिना भी व्रत कहलाया' वे लोग व्रत और संस्कार का अन्तर नहीं समझते । व्रत का लक्षण स्वामी समन्तभद्राचार्य ने यह लिखा है : अभिसन्धिकृता विरतिः विषयाद्योगाव्रतं भवति । अर्थात्-योग्य विषय से अभिप्राय (भाव) पूर्वक विरक्त होना व्रत कहलाता है। वाह्यदृष्टि से त्यागी हो जाने पर भी जब तक अभिप्राय पूर्वक त्याग नहीं होता तब तक बूत नहीं कहलाता है। संस्कार कोई व्रत नहीं है, परन्तु बूती बनने को योग्यता प्राप्त करने का एक उपाय है । व्रत पाठ वर्ष की उमर के पहिले नहीं हो सकता, परंतु संस्कार तो गर्भावस्था से ही होने लगते हैं । संस्कार से योग्यता पैदा हो सकती है ( योग्यता का होना अवश्यम्भावी नहीं है लेकिन व्रत तो योग्यता पैदा होने के बाद उसके उपयोग होने पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) ही हो सकते हैं। संस्कार से हमारे ऊपर प्रभाव पड़ता है और वह प्रभाव प्रायः दूसरों के द्वारा डाला जाता है; परंतु व्रत दूसरों के द्वारा नहीं लिया जा सकता। संस्कार तो पात्र में श्रद्धा, समझ और त्याग के बिना भी डाले जा सकते हैं, परंतु व्रत में इन तीनों की अत्यंत आवश्यकता रहती है । इस लिये भावों के विना व्रत ग्रहण हो ही नहीं सकता । वर्तमान में जो अनिवार्य वैधव्य की प्रथा चल पड़ी है, वह व्रत नहीं है, किन्तु अत्याचारी, समर्थ, निर्दय पुरुषों का शाप है जो कि स्त्रियों को उनकी कमज़ोरी ओर मूर्खतो के अपराध (?) में दिया गया है। प्रश्न ( १५ )-जिसने कभी अपनी समझ में ब्रह्मचर्याणुव्रत ग्रहण नहीं किया है उसका विवाह करना धर्म है या अधर्म? उत्तर—जो मुनि वा धार्यिका बनने के लिये तैयार नहीं है या सप्तम प्रतिमा भी धारण नहीं कर सकतो उसे विवाह कर लेना चाहिये-चाहे वह विधुर हो या विधवा, कुमार हो या कुमारी । ऐसी हालत में किसी को भी विवाह की इच्छा होने पर विवाह कर लेना अधर्म नहीं है ।। प्रश्न (१६)-जिसका गर्भाशय गर्भधारण करने के लिये पुष्ट नहीं हुआ है उसको गर्भ रह जाने से प्रायः मृत्यु का कारण हो जाता है या नहीं? उत्तर-इस प्रश्न का सम्बन्ध वैद्यक शास्त्र से है । वैद्यक शास्त्र तो यही कहता है कि १६ वर्ष की लड़की और बीस वर्ष का लड़का होना चाहिये; तभी योग्य गर्भाधान हो सकता है। इससे कम उमर में अगर गर्भाधान किया जाय तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) सन्तान अल्पायु या रोगी होगी अथवा गर्भ स्थायो न रहेगा। बहुत से लोग यह समझते हैं कि स्त्रीको पुष्पवति हो जाने से ही गर्भाधान की पूर्ण योग्यता प्राप्त हो जाती है। लेकिन प्राकृतिक नियम इसके बिलकुल विपरीत है। अंड, पोपइया श्रादि फलों के वृक्षोंमें जब पुष्प पाते हैं तो चतुर माली उन्हें निष्फल ही झड़ा देता है। क्योंकि अगर ऐसा न किया जाय तो फल बहुत छोटे, बेस्वाद और रद्दी होते हैं । श्राम के वृक्ष में अगर सब फूलों के प्राम वनने लगें तो आम बिलकुल रद्दी होंगे,उनका आकार राई के दाने से शायद ही बड़ा हो सके । इसलिये प्रकृति फी सदी ६६ पुष्पों को निष्फल झड़ोदेती है। तब कहीं अच्छे आम पैदा होते हैं । सभी वृक्षों के विषय में यह नियम है कि अगर आप उनसे अच्छा फल लेना चाहते हैं तो प्रारम्भ के पुष्पों को फल न बनने दीजिये और मात्रा से अधिक फल न लगने दीजिये । नारी के विषय में भी यही बात है । वहाँ भी रजोदर्शन के बाद तुरन्त ही गर्भाधान के साधन न मिलना चाहिये, अन्यथा मृत्यु आदि की पूरी सम्भावना है। कहा जा सकता है-मृत्यु भले ही हो, परंतु उसका पाप नहीं लग सकता । लेकिन यह बात ठीक नहीं है,क्योंकि यत्ना. चार न करने से प्रमाद होता है और 'प्रमत्त योगात् प्राणज्यपरोपणं हिंसा' इस सूत्र के अनुसार वहाँ हिंसा भी है। जब हम जानते हैं कि ऐसा करने से हिंसा हो जायगी, फिर भी हम वही काम करें तो इससे हिंसा का अभिप्राय, अथवा हिंसा होने से लापर्वाही सिद्ध होती है जो कि पापबंध का कारण है। घरमें स्त्रियों को यह शिक्षा दी जाती है कि पानी को ढककर रक्खा करो, नहीं तो कोड़े मकोड़े गिर कर मर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) जायेंगे। यद्यपि स्त्रियों के हृदय में कीड़े मकोड़े मारने का अभिप्राय नहीं है फिर भी प्रयत्नाचार से जो प्रमाद होता है उसका पाप उन्हें लगता है। जब इस अयत्नाचार से पाप लगता है तब जिस प्रयत्नाचार से मनुष्यों को भी प्राणों से हाथ धोना पड़े तो उससे पाप का बंध क्यों न होगा? प्रश्न (१७)-किसी समाज की पांच लाख औरतों में एक लाख तेतालीस हजार विधवाएँ शोभा का कारण हो सकती हैं या नहीं ? उत्तर-जिस समाज में विधवाओं को पुनर्विवाह करने का अधिकार है, उनका पुनर्विवाह किसी भी तरह से हीनदृष्टि से नहीं देखा जाता, स्त्रियों को इस विषय में कोई संकोच नहीं रहता, उस समाज में कितनी भी विधवाएं हो वे शोभा का कारण हैं। क्योंकि ऐसी समाजों में जो वैधव्य का पालन किया जायगा वह जबर्दस्ती से नहीं, त्यागवृत्ति से किया जायगा और त्यागवृत्ति तो जैनधर्म के अनुसार शोभा का कारण है ही, लेकिन जिस समाज में वैधव्य का पालन ज़बर्दस्ती करवाया जाता है, वहाँ पर कोई भी विधवा शोभा का कारण नहीं है, क्योंकि वहाँ कोई वैधव्यदीक्षा नहीं लेता-वह तो बन्दी जीवन है । बन्दियों से किसी भी समाज की शोभा नहीं हो सकती। ऐसी समाजों के साक्षरों को भी स्वीकार करना पड़ता है कि "एक विधवा भी शोभा का कारण नहीं है--शोभा का कारण तो सौभाग्यवती स्त्रियाँ हैं"। इससे साफ मालूम होता है कि विधवाओं को स्थान सौभाग्यवतियों से नीचा है। अगर ऐसी समाजों में वैधव्य कोई व्रत होता तो क्या विधवाओं का ऐसा नीचा स्थान रहता ? उनके विषय में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ह ) क्या ऐसे अपमानजनक शब्द लिखे जाते ? व्रती के आगे श्रवती को क्यी शोभा का कारण कहा जाता ? वैधव्य दीक्षा से दीक्षित महिलाए तो सौभाग्यवती और सौभाग्यवानों से भी पूज्य हैं। गृहस्थाश्रम में वे वीतरागता की एक किरण हैं । परन्तु उनको इतना मूल्य तो तब मिले जब समाज में विधवा विवाह का प्रचार हो । तभी उनके त्याग का मूल्य है । जो वस्तु ज़बर्दस्ती छिन गई, जिसके ऊपर अधिकार ही नहीं रहा, उसका त्याग ही क्या ? कहा जा सक्ता है कि 'देवी आपत्ति पर कौन विजय प्राप्त कर सक्ता है ? प्लेग, इन्फ्लुएंजा श्रादि से मनुष्य क्षति हो जाती है, वहाँ क्या किसी के हाथ की बात है' ? ऐसी बात करने वालों से हम पूछते हैं कि बीमारी हो जाने पर आप चिकित्सा करते हैं या नहीं ? अगर दैव पर कुछ वश नहीं है तो औषधालय क्यों खुलवाये जाते हैं ? दैव के उदय से कंगाल हो कर भी लोग अर्थोपार्जन की चेष्टा क्यों करते हैं ? दैव के उदय से तो सब कुछ होता है, फिर पुरुषार्थ की कुछ ज़रूरत है या नहीं ? तथा यह बात भी विचारणीय है कि दैव के द्वारा जैसे विधवाएँ बनती हैं; उसी प्रकार विधुर भी बनते हैं । विधुरों के लिये तो दैव का विचार नहीं किया जाता है और विधवाओं के लिये किया जाता है - यह अन्धेर क्यों ? यदि कहा जाय कि विधुरपन की चिकित्सा भी देव के उदय से होती है तो विधवापन की चिकित्साभी देव के उदय से हो जायगी और होने लगी है । मनुष्य को उद्योग करना चाहिये, अगर सफल हो जाय तो ठीक है । अगर सफलता न होगी तो क्या दोष है ? " यत्ने कृते यदि न सिद्धयति कोऽत्र दोषः " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) अगर कोई विधवा विवाह से वैधव्य की चिकित्सा करता है तो हमें उसको धन्यवाद देना चाहिये । यहाँ कोई शीलभ्रष्टता की सम्भावना करे तो यह भी अनुचित है। इसका उत्तर हम दे चुके हैं । दैवकृत विधुरत्व के दुःख को हम दूर करते हैं और इससे समाज की शोभा नहीं विगड़ती तो वैधव्य दुःख को दूर करने से भी शोभा न बिगड़ेगी। प्रश्न (१८)-जिस तरह जैन समाज की संख्या घट रही है उससे जैन समाज को हानि है या लाभ ? उत्तर-गवर्नमेण्ट को मर्दुमशुमारी की रिपोटौं के देखने से साफ मालूम है कि प्रतिवर्ष ७ हज़ार के हिसाब से जैनी घट रहे हैं । गवर्नमेण्ट की रिपोर्ट पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। समाज का आदर्श जितना चाहे ऊंचा हो, परन्तु उसे अपना माध्यम ऐसा अवश्य रखना चाहिये जिससे समाज को नाश न होजाय । उच्च धर्म का पालन करना अच्छी बात है, परन्त वह समाज का अनिवार्य नियम न होना चाहिये । जिनमें शक्ति हो वे पालन करें, न हो तो न करें । समाज की संख्या कायम रहेगी तो उच्च धर्म का पालन करने वाले भी मिलेंगे । जब समाज ही न रहेगी तो कौन उच्च धर्म का पालन करेगा और कौन मध्यम धर्म का। इस लिये समाज को कोई भी अात्मघातक रिवाज न बनाना चाहिये । वर्तमान में अनिवार्य वैधव्य के रिवाज से संख्या घट रही है और इससे बहुत हानि हो रही है । .. प्रश्न (१६)--जैनसमाज में काफी संख्या में अविवाहित हैं या नहीं? उत्तर--हैं । परंतु इसका कारण स्त्रियों की कमी नहीं, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) किन्तु अनिवार्य वैधव्य की कुप्रथा है। धर्म के वेष में छिपी हुई यह धर्मनाशक प्रथा बंद हो जाय तो अविवाहित रहने का मौका न आवे । प्रश्न (२०)-एक लाख तेतालीस हज़ार विधवाएँ अगर समाजमें न होती तो जनसंख्या बढ़ सकती थी या नहीं? उत्तर-इतनी विधवाओं के स्थान में अगर सधवाएँ होती तो संख्या अवश्य बढ़ती। मदुमशुमारी की रिपोटौ से मालूम होता है कि जिन समाजों में विधवा-विवाह का रिवाज है उनकी जनसंख्या नहीं घट रही है, बल्कि बढ़ रही है। जो लोग ऐसा कहते हैं कि "क्या कोई ऐसी शक्ति है जो कि दैव. बल का अवरोधक होकर विधवा न होने दे ?" ऐसा कहने वालों को बुद्धि मिथ्यात्व के उदय से भ्रष्ट होगई है-वे दैवै. कांतवादी बन गये हैं । कुमारपन और कुमारीपन, तथा विधुरपन भी दैव के उदय से होते हैं, किन्तु उनके दूर करने का उपाय है। इसी प्रकार वैधव्य के दूर करने का भी उपाय विधवा-विवाह है। हाथकंकण को पारसी क्या ? सौ पचास विधवा-विवाह करके देख लो। जितने विवाह होंगे उतनी विधवाएँ घट जायँगी। अगर विधवाओं का संसारी जीवों की तरह होना अनिवार्य है तो जैसे संसारी जीवों को सिद्ध बनाने की चेष्टा की जाती है उसी तरह विधवाओं को भी सधवा बनाने की चेष्टा करना चाहिये । छः महीना आठ समय में ६०८ जीव संसारी से सिद्ध बन जाते हैं। अगर इतने समय में इतनी ही विधवाएँ सधवा बनायी जाँय तो सब विधवाएं न घटने पर भी बहुत घट जावेगी। अगर कोई कहे कि "विधवा-विवाह से नित्य नये उत्पात Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) और विशाल अनर्थ होंगे, इसीलिये संख्यावृद्धि के प्रलोभन में हमें न पड़ना चाहिये” लेकिन यह भूल है । प्रत्येक रिवाज से कुछ न कुछ हानि और कुछ न कुछ लाभ होता ही है | विचार सिर्फ़ इतना किया जाता है कि हानि ज्यादा है या लाभ ? अगर लाभ ज्यादा होता है तो वह ग्रहण किया जाता है । अगर हानि ज्यादा होती है तो छोड़ दिया जाता है । विवाह के रिवाज से ही बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, कन्या- विक्रय, स्त्रियों की गुलामी आदि कुरीतियाँ और दुःपरिस्थितियाँ पैदा हुई हैं। अगर विवाह का रिवाज न होता तो न ये कुरीतियाँ होतीं, न विजातीय विवाह, विधवा-विवाह आदि के झगड़े खड़े होते। इसलिये क्या विवाह प्रथा बुरी हो सकती है ? मनुष्य को बहुत सी बीमारियाँ भोजन करने से होती हैं । तो क्या भोजन न करना चाहिये ? हमारे जीवन में ऐसा कौन सा कार्य या समाज में ऐसी कौनसी प्रथा है जिनमें थोड़ी बहुत बुराई न हो ? परंतु हमें वे सब काम इस लिये करना पड़ते हैं कि उनसे लाभ अधिक है। विधवा-विवाह से कितने अनर्थ हो सकेंगे, उससे ज़्यादा अनर्थ तो आज विधवा-विवाह न होने से हो रहे हैं। विधवाओं का नारकीय जीवन, गुप्त व्य भिचार का दौर दौरा, अविवाहित पुरुषों का बनगज की तरह डोलना और कसाइयों को भी लज्जित करने वाले भ्रूण हत्या के दृश्य, ये क्या कम अनर्थ है ? इन सब श्रनर्थों को दूर करने के लिये विधवा-विवाह एक सर्वोत्तम उपाय है । विधवाविवाह से समाज क्षीण नहीं होती, अन्यथा योरोप, अमेरिका आदि में यह तरक्की न होती । अगर विधवाविवाह के विरोध से समाज का उद्धार होता तो हमें पशुओं की तरह गुलामी की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) जंजीर में न बँधना पड़ता। हमने विधवा-विवाह का विरोध करके स्त्रियों के मनुष्योचित अधिकारों को हड़पा, इसलिये अाज हमें दुनियाँ के साम्हने औरत बन के रहना पड़ता है। मनुष्यों को अछूत समझा; इसलिये आज हम दुनियाँ के अछूत बन रहे हैं । हमारे रानसी पापों का प्रकृति ने गिन गिनकर दंड दिया है। फिर भी हम उन्हीं राक्षसी अत्याचारों को धर्म समझते हैं ! कहते हैं-विधवा-विवाह से शरीर की विशुद्धि नष्ट हो जायगी! जिस देह के विषय में जैन समाज का बच्चा बच्चो जानता है पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादि ते मैली । नव द्वार बह घिनकारी, अस देह करे किम यारी ॥ ऐसी देह में जो विशुद्धि देखते हैं उनकी आँखें और हृदय किन पाप परमाणुओं से बने हैं, यह जानना कठिन है। व्यभिचारजात शरीर से जब सुदृष्टि सरीखे व्यक्ति मोक्ष तक पहुंचे हैं तब जो लोग ऐसे व्यक्तियों को जैन भी नहीं समझते उन्हें किन मूखों का शिरोमणि माना जाय ? जैन धर्म आत्मा का धर्म है न कि रक्त, मांस और हड्डियों का धर्म । चमार . भी रक्त, मांस में धर्म नहीं देखते। फिर जो लोग इन चीज़ों में धर्म देखते हैं, उन्हें हम क्या कहें ? प्रश्न (२१)—व इसका उत्तर इस में से हटा दिया गया है क्योंकि, इसका सम्बन्ध सम्प्रदाय विशेष के साधुओं से है। प्रश्न ( २२ )-क्या रजस्वला के रक्त में इतनी ताकत है कि वह सम्यग्दर्शन का नाश कर सके ? यदि नहीं तो क्या सम्यग्दर्शन के रहते अविवाहित रजस्वला के माता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) पिता आदि नरक में जा सकते हैं ? यदि मान लिया जाय कि उस रक्त में वैसी शक्ति है तो क्या विवाह कर देने से वह नष्ट हो जाती है ? उत्तर-रजस्वला के रक्त में सम्यग्दर्शन नष्ट करने की ताकत नहीं है । अविवाहित अवस्था में रजोदर्शन होने से पाप बन्ध नहीं, किन्तु पुण्य बंध होता है। क्योंकि जितने दिन तक ब्रह्मचर्य पलता रहे उतने दिनतक, अच्छा ही है। हाँ, अगर कोई कन्या वा विधवा, विवाह करना चाहे और दूसरे लोग उसके इस कार्य में बाधा डालें तो वे पाप के भागी होते हैं, क्योंकि इससे व्यभिचार फैलता है। गर्भधारण की योग्यता व्यर्थ जाने से पाप का बंध नहीं होता, क्योंकि यदि ऐसा मानो जायगा तो उन राजाओं को महापापी कहना पड़ेगा जो सैकड़ों स्त्रियोको छोड़कर मुनि बन जाते थे और रजोदर्शन बन्द होने के पहिले आर्यिका बनना भी पाप कहलायगा । विधवा विवाह के विरोधी इस युक्ति से भी महापापी कहलायेंगे कि वे विधवाओं की गर्भधारण शक्ति को व्यर्थ जाने देते हैं। जो लोग यह समझते हैं कि 'रजोदर्शन के बाद गर्भाधानादि संस्कार न करने से माता पिता संस्कारलोपक और राजनमार्गलोपी हो जाते हैं" वे संस्कार का मतलब ही नहीं समझते । विवाह भी तो एक संस्कार है; फिर जिन तीर्थंकरों ने विवाह नहीं कराये वे क्या संस्कार लोपक और जिनमार्गलोपी थे ? ब्राह्मी और सुन्दरी जीवनभर कुमारी ही रहीं तो क्या उनके पिता भगवान ऋषभदेव और माता मरुदेवी, भाई भरत, बाहुबली आदि नरक गये? ये लोग भी क्या जिनमार्गलोपी ही थे? गर्भाधानादि संस्कार तभी करना चाहिये जब कि स्त्री Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) पुरुष के हृदय में गर्भाधान की तीव्र इच्छा हो, फिर भले ही वह संस्कार २५ वर्ष की उम्र में करना पड़े । इच्छा पैदा होने के पूर्व ऐसे संस्कार करना बलात्कार के समान पैशाचिक कार्य है। प्रश्न (२३)--चतुर्थ, पंचम, सैतवाल आदि जातियों में विधवा विवाह कब से प्रचलित है और ये जातियाँ कब से जैन जातियाँ हैं ? उत्तर-जैन समाज की वर्तमान सभी जातियाँ हज़ार वर्ष से पुरानी नहीं हैं। जिन लोगों को मिलाकर ये जातियाँ बनाई गई थीं उनमें विधवा विवाह का रिवाज पहिले से ही था । यह इन जातियों की ही नहीं किन्तु दक्षिण प्रान्त मात्र की न्यायोचित रीति है । दक्षिण में अन्य अजैन लोगों में भी जोकि उच्चवर्णी हैं-यह रिवाज पाया जाता है । ऐतिहासिक सत्य तो यह है कि उत्तर भारत में पर्दे का रिवाज अाजाने से यहाँ की स्त्रियाँ मकान के भीतर कैद हो गई और पुरुषों के चङ्गुल में फँसगईं । पुरुषों ने इस परिस्थिति का बुरी तरह उपभोग किया। उन्होंने स्त्रियों के मनुष्योचित अधिकार हड़प लिये । परन्तु दक्षिण की स्त्रियाँ घर और बाहर दोनों जगह काम करती थीं, इस लिये स्वार्थी पुरुषों का कुचक उनके ऊपर न चल पाया और उनके पुनर्विवाह प्रादि के अधिकार सुरक्षित रहे । हाँ, जिन घरों की स्त्रियाँ आराम तलब हो कर घर में पड़ी रहीं उन घरों के स्वार्थी पुरुषों ने मौका पाकर उनके अधिकार हड़प लिये । इस लिये थोड़े से घरों में यह रिवाज नहीं है। उत्तर प्रान्त में भी शूद्रों में विधवा विवाह का रिवाज है । इसका का कारण यही है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी स्त्रियां घर के अतिरिक्त बोहर का काम भी करती हैं। अब ज़माना बदल गया है । लेकिन जिस ज़माने में स्त्री पुरुषों का संघर्ष हुआ था उस ज़माने में जहाँ की स्त्रियाँ आर्थिक दृष्टि से पुरुषों की पूरी गुलाम बनीं वहाँ की स्त्रियों के बहुत से अधिकार छिन गये। उनमें पुनर्विवाह का अधि. कार मुख्य था; जहाँ स्त्रियाँ अपने पैरों पर खड़ी रहीं वहाँ यह अधिकार बचा रहा। प्रश्न (२४)—विधवा विवाह से इनके कौन कौन से अधिकार छिन गये हैं तथा कौन कौन सी हानियाँ हुई हैं ? उत्तर-विधवा विवाह से किसी के अधिकार नहीं छिनते । अधिकार छिनते हैं कमजोरी से और मूर्खता से । अफ्रिका, अमेरिका आदि में अनेक जगह भारतीयों के साथ अछूत कैसा व्यवहार किया जाता है। इसका कारण भार. तीयों की कमज़ोरी है । दक्षिण के उपाध्यायों में विधवा विवाह का रिवाज है, वे निर्माल्य भक्षण भी करते हैं । फिर भी उनके अधिकार सबसे ज्यादा हैं। इसका कारण है समाज की मुर्खता । उत्तर प्रान्त के दस्से अगर विधवा विवाह न करें तो भी उन्हें पूजा के अधिकार नहीं मिलेंगे, परन्तु दक्षिण के लोगों को सर्वाधिकार हैं। अधिकार छिनने के कारण तो दूसरे ही होते हैं । हाँ, धार्मिक दृष्टि से विधवा विवाह वालों का कोई अधिकार नहीं छिनता । स्वर्गों में भी विधवा विवाह है, फिर भी देव लोग नंदीश्वर में, समवशरण में तथा अन्य कृत्रिमाकृत्रिम चैत्यालयों में भगवान की पूजा बन्दना आदि करते हैं । विधवा विवाह, कुमारी विवाह के समान धर्मानुकूल है। यह बात हम पहिले सिद्ध कर चुके हैं । जब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) कुमारीविवाह से कोई अधिकार नहीं छिनते तो विधवा विवाह से कैसे छिनेंगे । कुछ लोग नासमझी से विधवा विवाह से उन अधिकारों का छिनना बतलाते हैं जो व्यभिचार से भी नहीं छिन सकते ! इस सम्बन्ध के कुछ शास्त्रीय उदाहरण सुनिये - - कौशाम्बी नगरी के राजा सुमुख ने वीरक सेठ की स्त्री को हर लिया; फिर दोनों ने मुनियों को श्राहार दिया और मरकर विद्याधर, विद्याधरी हुए । इनही से हरिवंश चला । पद्मपुराण और हरिवंशपुराण की इस कथा से मालूम होता है कि व्यभिचार से मुनिदान अधिकार नहीं छिनता । राजा मधु ने चन्द्राभा का हरण किया था। पीछे सै दोनों ने जिनदीक्षा ली और सोलहवें स्वर्ग गये। इससे मालूम होता है कि व्यभिचार से मुनि, श्रार्थिका बनने का भी अधिकार नहीं छिनता । प्रायश्चित ग्रन्थों के देखने से मालूम होता है कि श्रार्थिका भी अगर व्यभिचारणी हो जाय तो प्रायश्चित के बाद फिर आर्यिका बनाई जा सकती है । व्यभिचारजात सुदृष्टि सुनार ने मुनिदीक्षा ली और मोक्ष गया, यह बात प्रसिद्ध ही है । इस से मालूम होता है कि व्यभिचार से या व्यभिचार जोत होने से किसी के अधिकार नहीं छिनते । विधवाविवाह तो व्यभिचार नहीं है, उससे किसी के अधिकार कैसे छिन सकते हैं ? प्रश्न (२५) – इन जातियों में कोई मुनि दीक्षा ले सकता है या नहीं ? यदि ले सकता है तो क्या उनके ख़ानदान में विधवाविवाह नहीं हुआ और क्या विधवाविवाह करने वाले ख़ानदानों से बेटी व्यवहार नहीं हुआ ? उत्तर – इन जातियों में मुनिदीक्षा लेते हैं। बेटी - व्यव - www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) हार भी सब जगह होता है । यह सब धर्मानुकूल है । इसका खुलासा २३ और २४ वे प्रश्न के उत्तर में हो चुका है। प्रश्न (२६)—व्यभिचार से पैदा हुई सन्तान मुनिदीक्षा ले सकती है या नहीं? यदि नहीं तो व्यभिचारिणी का पुत्र सुदृष्टि सुनार उसी भव से मोक्ष क्यों गया ? क्या यह कथा मिथ्या है ? उत्तर-यदि कथा मिथ्या भी हो तो इससे यह मालूम होता है कि जिन जिन प्राचार्यों ने यह कथा लिखी है उन्हें व्यभिचारजात सन्तान को मुनि दीक्षा लेने का अधिकार स्वीकार था । यदि कथा सत्य हो तो कहना ही क्या है ? मनुष्य किसी भी तरह कहीं भी पैदा हुआ हो, वैराग्य उत्पन्न होने पर उसे मुनिदीक्षा लेने का अधिकार है । इसमें तो सन्देह नहीं कि सुदृष्टि सुनार था, क्योंकि दोनों भवों में प्राभूषण बनानेका धंधा करता था, जोकि सुनार का काम है । रत्नविज्ञानिक शब्द से इतना ही मालूम होता है कि वह रत्नों के जड़ने के काम में बड़ा होशियार था; व्यभिचार जातता तो स्पष्ट ही है, क्योंकि जिस समय वह मरा और अपनी स्त्री के ही गर्भ में आया उसके पहिले ही उसको स्त्री व्यभिचारणी हो चुकी थी और जार से ही उसने सुदृष्टि की हत्या करवाई थी । वह अपने वीर्य से ही पैदा हुआ हो, परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि वीर्य व्यभिचारिणी के गर्भ में डाला गया था । इतने पर भी जब कोई दोष नहीं है तो विधवा-विवाह में क्या दोष है ? विधवा विवाह से जो संतान पैदा होगी वह भी तो एक ही वीर्य से पैदा होगी। प्रश्न (२७)—त्रैवर्णिकाचार के ग्यारहवें अध्याय में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) १७३ वे आदि श्लोकों से स्त्री-पुनर्विवाह का समर्थन होता है या नहीं ? उत्तर – होता है । त्रैवर्णिकाचार के रचयिता सोमसेन ने हिन्दू-स्मृतियों की नक़ल की है, यहाँ तक कि वहाँ के श्लोक चुरा चुरा कर ग्रन्थ का कलेवर बढ़ाया है। हिन्दू-स्मृतियों में विधवा-विवाह का विधान पाया जाता है इसलिये उनमें भी इसका विधान किया है । दूसरी बात यह है कि दक्षिण प्रान्त मैं ( जहाँ कि सोमसेन भट्टारक हुए हैं ) विधवा-विवाह का रिवाज सदा से रहा है । यह बात हम तेईसवें प्रश्न के उत्तर में कह चुके हैं। इसलिये भी सोमसेन जी ने विधवा-विवाह का समर्थन किया है । सब से स्पष्ट बात तो यह है कि उनने गालव ऋषि का मत विधवा-विवाह के पक्ष में उद्धृत किया है लेकिन उसका खण्डन बिलकुल नहीं किया । पाठक ज़रा निम्न लिखित श्लोक पर ध्यान दें : : कलौ तु पुनरुद्वाहं वर्जयेदिति गालवः । कस्मिविदेथे इच्छन्ति न तु सर्वत्र केचन ॥ " गालव ऋषि कहते हैं कि कलिकाल में पुनर्विवाह न करे । परन्तु कुछ लोग चाहते हैं कि किसी किसी देश में करना चाहिये ।" इससे साफ़ मालूम होता है कि दक्षिण प्रान्त में उस समय भी पुनर्विवाह का रिवाज चालू था जिसका विरोध भट्टारकजी भी नहीं कर सके । इसलिये उनने विधवा-विवाह के विरोध में एक पंक्ति भी न लिखी । जो आदमी ज़रा ज़रा सी बात में सात पुश्त को नरक में भेजता है वह विधवा विवाह को ज़रा भी निंदा न करे यह बड़े आश्चर्य की बात है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) सोमसेन ने गालव ऋषि का मत उधृत करके उसका खण्डन करना तो दूर, अपनी असम्मति तक ज़ाहिर नहीं की । इससे साफ़ मालूम होता है कि सोमसेन विधवा-विवाह के पक्ष में थे, अथवा विपक्ष में नहीं थे । अन्यथा उन्हें गालवऋषि के पतको उद्धत करने की क्या ज़रूरत थी ? और अगर किया था तो उसका विरोध तो करते। इससे एक बात और मालूम होती है कि हिन्दू लोगों में कलिकाल में पुनर्विवाह वर्जनीय है ( सो भी, किसी किसी के मत से नहीं है। लेकिन पहिले युगों में पुनर्विवाह वर्जनीय नहीं था। श्रीमान पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने जैन जगत् के १८ व अङ्क में पराशर,वसिष्ठ,मनु,याज्ञवल्क्य अादि ऋषियों के वाक्यं देकर हिन्दू-धर्मशास्त्रों में स्त्री-पुनर्विवाह को बड़े अका. ट्य प्रमाणों से सिद्ध किया है। जो लोग “नष्टे मृते प्रवजिते क्लीबे च पतिते पतौ । पञ्चस्वापत्सुनारीणां पतिरन्यो विधीयते" इस श्लोक में पतौ का अपतौ अर्थ करते हैं वे बड़ी भूल में हैं । अमितगति प्राचार्य ने इस श्लोक को विधवा-विवाह के समर्थन में उद्धृत किया है। वेद में पति शब्द के पतये आदि रूप पीसो जगह मिलते हैं । मुख्तार साहिब ने व्याकरण श्रादि के प्रकरणों का उल्लेख करके भी इस बात को सिद्ध किया है। हितोपदेश का निम्नलिखित श्लोक भी इसी बोत को सिद्ध करता है 'शशिनीव हिमाानाम् धर्मार्तानाम् रवाविव । मनो न रमते स्त्रीणां जराजीणेन्द्रिये पतौ ॥ शान्तिपुराण में भी 'पतेः' ऐसा प्रयोग मिलता है। हिन्दू-धर्मशास्त्रों से विधवा-विवाह के पोषण में बहुत ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) अधिक प्रमाण हैं । इस लिये यह बात सिद्ध होती है कि हिन्दुओं में पहिले आमतौर पर पुनर्विवाह होता था। ऐसे विवाहों को सन्तान धर्मपरिवर्तन करके जैनी भी बनती होगी। जिस प्रकार अाज दक्षिण में विधवा विवाह चालू है उसो तरह उस ज़माने में उत्तर प्रान्त में भी रहा होगा। कौटिलीय अर्थशास्त्र के देखने से यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है । चाणिक्य ने यह प्रन्थ महाराजा चंद्रगुप्त के राज्य के लिये बनाया था, और जैनग्रंथों से यह सिद्ध है कि महाराजा चंद्रगुप्त जैनी थे। एक जैनो के राज्य में पुनर्विवाह के कैसे नियम थे, यह देखने योग्य है "हस्व प्रवासिनां शुद्र वैश्य क्षत्रिय ब्राह्मणानां भार्याः संवत्सरोत्तरं कालमाकांक्षरनजाताःसंवत्सराधिकं प्रजाताः। प्रतिविहिता द्विगुणं कालं ॥ अप्रतिविहिताः सुखावस्था विभूयुः परंचत्वारिवाण्यष्टौवा हातयः ॥ ततो यथा दत्त मादाय प्रमुश्चयुः। ब्राह्मणमधीयानं दश वर्षाण्य प्रजाता द्वादश प्रजाता राजपुरुषमायुः क्षयादाक्षेत ॥ सवर्णतश्च प्रजाता नापवादं समेत् । कुटुम्बर्द्धि लोपे वा सुखावस्थै विमुक्ता यथेष्टं विन्देत जीवितार्थम् ।' अर्थात्-थोड़े समय के लिये बाहर जाने वाले शूद्र वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मणों की पुत्रहीन स्त्रियाँ एक वर्ष तथा पुत्रवती इससे अधिक समय तक उनके पानेकी प्रतीक्षा करें। यदि पति उनको श्राजीविका का प्रबन्ध कर गये हों तो वे दुगुने समय उनकी प्रतीक्षा करें और जिनके भोजनाच्छादन का प्रबन्ध न हो उनका उनके समृद्ध बंधुबांधव चार वर्ष या अधिक से अधिक आठ वर्ष तक पालन पोषण करें। इसके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) बाद प्रथम विवाह में दिये धन को वापिस लेकर दूसरी शादी के लिये आशा देवे | पढ़ने के लिये बाहर गये हुए ब्राह्मणों की पुत्ररहित स्त्रियाँ दश वर्ष और पुत्रवती स्त्रियाँ बारह वर्ष तक प्रतीक्षा करें। यदि कोई व्यक्ति राजा के किसी कार्य से बाहर गये हों तो उनकी स्त्रियाँ श्रायु पर्यंत उनकी प्रतीक्षा करें। यदि किसी समान वर्ण ( ब्राह्मणादि ) पुरुष से किसी स्त्री के बच्चा पैदा होजाय तो वह निन्दनीय नहीं । कुटुम्ब की सम्पत्ति नाश होने पर अथवा समृद्ध बन्धुबांधवों से छोड़े जाने पर कोई स्त्री जीवन निर्वाह के लिये अपनी इच्छा के अनुसार अन्य विवाह कर सकती है। प्रकरण ज़रा लम्बा है; इसलिये हमने थोड़ा भाग ही दिया है। इसमें विधवाविवाह और सधवा विवाह का पूरा समर्थन किया है। यह है सवा दो हज़ार वर्ष पहिले की एक जैन नरेश की राज्यनीति । श्रगर चन्द्रगुप्त जैनी नहीं थे तो भी उस समय का यह श्राम रिवाज मालूम होता है । श्राचार्य सोमदेव ने भी लिखा है - विकृत पत्यूढापि पुनर्विवाहमर्हतीति स्मृतिकाराः - श्रर्थात् जिस स्त्री का पति विकारी हो, वह पुनर्विवाह की अधिकारिणी है, ऐसा स्मृतिकार कहते हैं। सोमदेव श्राचार्य ने ऐसा लिखकर स्मृतिकारों का बिल्कुल खण्डन नहीं किया है, इससे सिद्ध है कि वे भी पुनविवाह से सहमत थे । इसी रीति से सोमसेन ने भी लिखा - उनने गालव ऋषि के बचन उद्धृत करके विधवाविवाह का समर्थन किया है । प्रश्न ( २८ ) – अगर किसी अबोध कन्या से कोईबलात्कार करे तो वह कन्या विवाह योग्य रहेगी या नहीं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) उत्तर-क्यों न रहेगी? यह बात तो उन्हें भी स्वीकार करना चाहिये जो स्त्रियों के पुनर्विवाह के विरोधी हैं, क्योंकि उन लोगों के मत से विवाह भागम की विधि से होता है। बलात्कार में आगम की विधि कहाँ है ? इस लिये वह विवाह तो है नहीं और अविवाहित कन्या को तो सभी के मत से विवाह का अधिकार है । रही बलात्कार की बात सो उसका दंड बलात्कार करने वाले पापी पुरुष को मिलना चाहिये-बेचारी कन्या को क्यों मिले ? कुछ लोग यह कहते हैं कि “यदि बलात्कार करने वाला पुरुष कन्या का सजातीय योग्य हो तो उसी के साथ उस कन्या का पाणिग्रहण कर देना चाहिये; अन्यथा कन्या जीवनभर ब्रह्मचारिणी रहे।" जो लोग बलात्कार करने वाले पापी, नीच, पिशाच पुरुष को भी योग्य समझते हैं उनकी धर्मबुद्धि की बलिहारी ! ब्रह्मचर्य पालना कन्या की इच्छा की बात है, परन्तु अगर वह विवाह करना चाहे तो धर्म उसे नहीं रोकता । न समाज को ही रोकना चाहिये । जो लोग पुनर्विवाह के विरोधी हैं उनमें अगर न्याय बुद्धि का अनंतवाँ हिस्सा भी रहेगा तो वे भी न रोकेंगे क्योंकि ऐसी कन्या का विवाह करना पुनर्विवाह नहीं है। प्रश्न (२६)--त्रैवर्णिकाचार से तलाक के रिवाज का समर्थन होता है । क्या यह उचित है ? उत्तर-दक्षिण प्रांतमें तलाक का रिवाज है इसलिये सोमसेन ने इस रिवाज की पुष्टि की है। वे किसी को दसवें वर्ष में, किसी को १२ वे वर्ष में, किसी को पंद्रहवें वर्ष में, तलाक देने की ( छोड़ देने की ) व्यवस्था देते हैं । जिसका बोलचाल अच्छा न हो उसको तुरंत तलाक देने की व्यवस्था Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) है। इस प्रथा का धर्म के साथ कोई ताल्लुक नहीं है। समाज की परिस्थिति देखकर उसी के अनुसार इस विषय में विचार करना चाहिए । परंतु जिन कारणों से सोमसेन जी ने तलाक़ देने का उपदेश दिया है उनसे तलाक देना अन्याय है। यों भी तलाक प्रथा अच्छी नहीं है। प्रश्न (३०)-किस कारण से पुराणों में विधवा विवाह का उल्लेख नहीं मिलता ? उस समय की परिस्थिति में और प्राज की परिस्थिति में अंतर है या नहीं? उत्तर-पुराणों के टटोलने के पहिले हमें यह देखना चाहिये कि पौराणिक काल में विधवाविवाह या स्त्रियों के पुनर्विवाह का रिवाज था या नहीं? ऐतिहासिक रष्टि से जब हम इस विषय में विचार करते हैं तब हमें कहना पड़ता है कि उस समय पुनर्विवाह का रिवाज ज़रूर था । २७ वै प्रश्न के उत्तर में कहा जा चुका है कि हिंदू धर्मशास्त्र के अनुसार विधवाविवाह सिद्ध है। गालव आदि के मत का उल्लेख सोमसेन जी ने भी किया है। इससे सिद्ध है कि जैनसमाज में यह रिवाज हो या न हो परंतु हिंद समाज में अवश्य था । हिंदू पुराणों के देखने से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है । उनके ग्रंथों के अनुसार सुग्रीव की स्त्री का पुनर्विवाह हुआ था; धृतराष्ट्र पांडु और विदुर नियोग की सन्तान हैं। यदि यह कहा जाय कि ये कहानियाँ झूठी हैं तो भी हानि नहीं, क्योंकि इससे इतना अवश्य मालूम होता है कि जिन लोगों ने ये कहानियाँ बनाई हैं उन लोगों में विधवाविवाह और नियोग का रिवाज ज़रूर था और इसे वे उचित समझते थे। दमयंती ने नल को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) हूँढने के लिये अपने पुनर्विवाह के लिये स्वयम्बर किया था । माना कि उसे दूसरा विवाह करना नहीं था, परंतु इससे यह अवश्य ही सिद्ध होता है कि उस समय पुनर्विवाह का रिवाज था और राजा लोग भी उसमें योग देते थे। उपयुक्त विवेचन से इतनी बात सिद्ध हुई कि चतुर्थकाल में अजैन लोगों में स्त्रियों के पुनर्विवाह का रिवाज था । अब हम धागे बढ़ते हैं। चतुर्थ काल में ऋषभदेव भगवान के बाद शांतिनाथ भगवान के पहिले प्रत्येक तीर्थकर के अंतराल में ऐसा समय प्राता रहा है जब की जैन धर्म का विच्छेद हो जाता था । ऐसे समय में अजैनों के धार्मिक विश्वास के अनुसार विधवाविवाह, नियोग श्रादि अवश्य होते थे । धर्मविच्छेद का वह अंतराल असंख्य वर्षों का होता था। इससे करोड़ों पीढ़ियाँ इसी तरह निकल जाती थी और इतनी पीढ़ियों तक विधवा विवाह, नियोग आदि की प्रथा चलती रहती थी। फिर इन्हीं में जैनी लोग पैदा होते थे अर्थात् दीक्षा लेकर जैनी बनते थे। इस लिये जैनी भी इस प्रथा से अछते नहीं थे। दूसरी बात यह है कि दीक्षान्वय क्रिया के द्वारा अजैनों को जैनी बनाया जाता था। इस तरह भी इस प्रथो की छूत लगती रहती थी। जैन शास्त्रों के अनुसार ही जब इतनी बात सिद्ध हो जाती है तब विधवा विवाह का प्रथमानुयोग में उल्लेख न होना सिर्फ आश्चर्य की बात रह जाती है; विशेष महत्व की नहीं । परंतु ज़रा और गम्भीर विचार करने पर इसकी आश्चर्यजनकता भी घट जाती है और महत्व तो बिलकुल नहीं रहता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) आजकल हमारे जितने पुराण हैं वे सब श्रेणिक के पूछने पर गौतम गणधर के कहे हुए बतलाये जाते हैं । आजकल जो रामायण, महाभारत प्रसिद्ध हैं, श्रेणिक ने उन सब पर विचार किया था और जब वह चरित्र उन्हें न अँचे तो गौतम से पूछा और उनने सब चरित्र कहा और बुराइयों की बीच बीच में निन्दा की। लेकिन इसके बीच में उनने कहीं विधवा विवाह की निन्दा नहीं की। हमारे पंडित लोग विधवा विवाह को परस्त्रीसेवन से भी बुरा बतलाते हैं लेकिन गौतम गणधर ने इतने बड़े पाप (?) के विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा । इससे साफ मालूम होता है कि गौतम गणधर की दृष्टि में भी विधवा विवाह की बुराई कुमारी विवाह से अधिक नहीं थी अन्यथा जब परस्त्रीसेवन की निन्दा हुई और मिथ्यात्व की भी निन्दा हुई तब विधवाविवाह की निन्दा क्यों नहीं हुई ? एक बात और है। शास्त्रों में परस्त्रीसेवन की निन्दा जिस कारण से की गई है वह कारण विधवा विवाह को लागू ही नहीं होता । जैसे यथा च जायते दुःख रुद्धायामात्म योषिति । नरान्तरेण सर्वेषामियमेव व्यवस्थितिः ॥ "जैसे अपनी स्त्री को कोई रोकले तो अपने को दुःख होता है उसी तरह दूसरे की स्त्री रोक लेने पर दूसरे को भी होता है।" पाठक ही विचारें, जिसका पति मौजूद है उसी स्त्री के विषय में ऊपर की युक्ति ठीक कही जा सकती है। लेकिन विधवा का तो पति ही नहीं है. फिर दुःख किसे होगा ? अगर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) कहा जाय कि कोई सम्बन्धी तो होंगे, उन्हें तो दुःख हो सकता है; लेकिन यह तो ठीक नहीं, क्योंकि इस विषय में स्वामी को छोड़ कर किसी दूसरे के दुःख से पाप नहीं होता। हां अगर स्त्री स्वयं राजी न हो तो बात दूसरी है । अन्यथा रुक्मणीहरण आदि बीसो उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनमें माता पिता को दुःख हुआ था फिर भी वह पाप नहीं माना गया। इसका कारण यही है कि रुक्मणी का कोई स्वामी नहीं था जिसके दुःख की पर्वाह की जाती और वह तो स्वयं राजी थी ही। विधवा के विषय में भी बिलकुल यही बात है। उसका कोई स्वामी तो है नहीं जिसके दुःख की पर्वाह की जाय और यह स्वयं राजी है । हां, अगर वह राजी न हो तो उसका विवाह करना अवश्य पाप है । परंतु यह बात कन्या के विषय में भी है । कन्या अगर राजी न हो तो उसका विवाह करना अन्याय है; पाप है। इस विवेचन से हमें यह अच्छी तरह मालूम हो जाता है कि गौतमगणधर ने विधवा विवाह की निन्दा क्यों नहीं की ? शास्त्रों में विधवा विवाह का उल्लेख क्यों नहीं है ? इस के पहले हमें यह विचारना चाहिये कि विधवाओं को उल्लेख क्यों नहीं है ? विधवाएँ तो उस समय भी होती थीं? परंतु जिस प्रकार कन्याओं के जीवन का चित्रण है, पत्नीजीवन का चित्रण है, उसी प्रकार प्रायः वैधव्य का चित्रण नहीं है। इतना ही नहीं बल्कि वैधव्य दीक्षा किसी ने ली इसका भी चित्रण नहीं है। इस कारण क्या हम यह कह सकते हैं कि उस समय विधवाएँ नहीं होती थी या वैधव्य दीक्षा कोई नहीं लेता था ? यदि इन चित्रणों के अभाव में भी विधवा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और वैधव्यदीक्षा का उस समय सदुभाव माना जा सकता है तो विधवाविवाह के चित्रण के अभाव में भी उस समय विधवाविवाह का सद्भाव माना जा सकता है, क्योंकि जो रिवाज धर्मशास्त्र के अनुकूल है उसके प्रचार में चतुर्थकाल के धार्मिक और उदार लोग बाधा डालते होंगे इसकी तो स्वप्न में भी कल्पना नहीं की जा सकती। प्रथामानुयोग शास्त्र कोई दिनचर्या लिखने की डायरी नहीं। उनमें उन्हों घटनाओं का उल्लेख है जिनका सम्बन्ध शुभाशुभ कर्मों से है। वर्णन को सरस बनाने के लिये उनने सरस रचना अवश्य की है लेकिन अनावश्यक चित्रण नहीं किया, बल्कि अनेक श्रावश्यक चित्रण भी रह गये हैं। दीक्षान्वय क्रिया का जैसा विधान आदिपुराण में पाया जाता है, उसका चित्रण किसी पात्र के चरित्र में नहीं किया, जब कि सैकड़ों अजैनों ने जनधर्म की दीक्षा ली है। इस लिये क्या यह कहा जा सकता है कि उस समय दीक्षान्वय की वह विधि चालू नहीं थी ? यही बात विधवाविवाह के बारे में भी है। विवाह-विधान के पाठ भेद बतलाये हैं, परन्तु प्रथमा. नुयोग के चरित्रों में दो एक विधानों के अतिरिक्त और कोई विधान नहीं मिलते । लेकिन इससे यह नहीं कहा जा सकता कि उस समय वैसे विधान चालू नहीं थे। इससे यह बात सिद्ध होती है कि विधवाविवाह कोई ऐसी महत्वपूर्ण घटना नहीं थी जिसका चित्रण किया जाता । यहाँ शंका हो सकती है कि 'कुमारी-विवाह भी ऐसी क्या महत्वपूर्ण घटना थी जिसका चित्रण किया गया ?' इसका उत्तर थोड़े में यही दिया जा सकता है कि प्रथमानुयोग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) प्रन्थों में कुमारी-विवाह का उल्लेख सिर्फ वहीं हुआ है जहाँ पर कि विवाह का सम्बन्ध किसी महत्वपूर्ण घटना से हो गया हैं । जैसे सुलोचना के विवाह का सम्बन्ध जयकुमार अर्ककीर्ति के युद्ध से है, सीता के विवाह का सम्बन्ध धनुष चढ़ाने और भामंडल के समागम से है इत्यादि । बाकी विवाहों को कुछ पता ही नहीं लगता; सिर्फ स्त्रियों की गिनती से उनका अनुमान किया जाता है। प्रचीन समय में कुमारी विवाहों में किसी किसी विवाह का सम्बन्ध किसी महत्वपूर्ण घटना से हो जाता था इस लिये उनका उल्लेख पाया जाता है। परन्तु विधवा विवाह में ऐसी महत्वपूर्ण घटना की सम्भावना नहीं थी या घटना नहीं हुई इस लिये उनका उल्लेख भी नहीं हुआ । शास्त्रों में सिर्फ महत्वपूर्ण घटनाओं का उल्लेख मिलता है। महत्वपूर्ण घटनाएं अच्छी भी हो सकती हैं और बुरी भी हो सकती हैं। इसीलिये परस्त्रीहरण आदि बुरी घटनाओं का भी उल्लेख है। बुरे कार्यों को निन्दा और उनका बुरा फल बतलाने के लिये यह चित्रण हुआ है। अगर विधवाविवाह भी बुरी घटना होती तो उसका पाप फल बत. लाने के लिये क्या एक भी घटना का उल्लेख न होता। इससे साफ़ मालूम होता है कि विधवाविवाह का अनुल्लेख उसकी बुराई को नहीं, किन्तु साधारणता को बतलाता है । जब शास्त्रों में परस्त्रोहरण और बाप बेटी के विवाह का उल्लेख मिलता है (देखो कार्तिकेय स्वामीकी कथा-आराधना कथा. कोष में) और उनकी निन्दा की जाती है,किन्तु विधवाविवाह का उल्लेख उसकी निन्दा करने और दुष्फल बताने को भी नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) मिलता: इतने पर भी जो लोग विधवाविवाह को बड़ा पाप समझते हैं उनकी समझ की बलिहारी । साराँश यह है कि विधवा विवाह न तो कोई पाप है, न कोई महत्वपूर्ण बात है जिससे उसका उल्लेख शास्त्रों में किया जाता । के -जब यह बात सिद्ध हो चुकी कि विधवाविवाह जैनशास्त्रों अनुकूल और पुरानी प्रथा है तब इस बात की ज़रूरत नहीं है कि दोनों कालोंकी परिस्थितिमें अन्तर दिखलाया जाय, फिर भी कुछ अन्तर दिखला देना हम अनुचित नहीं समझतेःपहिले ज़माने में विवाह तभी किया जाता था जब मातापिता देख लेते थे कि इनमें एक तरह का रागभाव पैदा हो गया है, जिसको सीमित करने के लिये विवाह श्रावश्यक है, तब वे विवाह करते थे। परन्तु आजकल के माता - पिता समय में ही बिना ज़रूरत विवाह कर देते हैं; बस फिर उनकी बला से । पहिले ज़माने में भ्रूणहत्याएँ नहीं होती थीं । परन्तु श्राजकल इन हत्याओं का बाज़ार गर्म है I 1 पहिले ज़माने में अगर किसी स्त्री से कोई कुकर्म हो जाता था तो भी वह और उसकी संतान जाति से पतित नहीं मानी जाती थी। उनकी योग्य व्यवस्था की जाती थी। ज्येष्ठा श्रार्थिका का उदाहरण काफ़ी होगा। उस समय जैनसमाज में जन्म संख्या की अपेक्षा मृत्युसंख्या अधिक नहीं थी । विधवा स्त्रियोंके साथऐसे अत्याचार नहीं होतेथे; जैसे कि श्राजकल होते हैं। इस प्रकार अन्तर तो बहुत से हैं, परन्तु प्रकरण के लिये उपयोगी थोड़ेसे अन्तर यहाँ लिख दिये गये हैं। प्रश्न (३१) - सामाजिक नियम अथवा व्यवहार धर्म श्रावश्यकतानुसार बदल सकता है या नहीं ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat • ご www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) उत्तर--सामाजिक नियम अथवा व्यवहार धर्म, इन दोनों शब्दों के अर्थ में अन्तर है, परंतु सामाजिक नियम, व्यवहार धर्म की सीमा का उल्लंघन नहीं कर सकते हैं । इस लिये उनमें अभेद रूप से व्यवहार किया जाता है। जो सामा. जिक नियम व्यवहार धर्म रूप नहीं हैं अर्थात् निश्चय धर्म के पोषक नहीं हैं वे नादिरशाही के नमूने अथवा भेड़ियोधसानी मूर्खता के चिन्ह हैं । व्यवहार धर्म ( तदन्तर्गत होने से सामाजिक नियम भी ) सदा बदलता रहता है। व्यवहार धर्म में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा है । जब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावमें सदा परिवर्तन होता है,तब तदाश्रित व्यवहार धर्म में परिवर्तन क्यों न होगा ? व्यवहार धर्म में अगर परिवर्तन न किया जाय तो धर्म जीवित ही नहीं रह सकता। मोक्षमार्ग में ज्योज्यों उच्चता प्राप्त होती जाती है त्यों त्यों भेद घटते जाते है। सिद्धों में परस्पर जितना भेद है उससे ज़्यादा भेद अरहंतों में हैं और उससे भी ज़्यादा मुनियों में और उससे भी ज्यादा श्रावकों में है। - ऊपरी गुण स्थानों में कर्मों का नाश, केवलज्ञानादि की उत्पत्ति, शुक्ल ध्यान आदि की दृष्टि से समानता है; परन्तु शुक्ल ध्यान के विषय प्रादिक की दृष्टि से भेद भी है । और भी बहुत सी बातों में भेद है। कोई सामायिक संयम रखता है, कोई छेदोपस्थापना । कोई स्त्री वेदो है, कोई पुवेदी, कोई नपुसक वेदी । इन जुड़ जुदे परिणामों से भी सब यथाख्यात संयम को प्राप्त करते हैं। भगवान अजितनाथ से लेकर भग. वान् महावीर तक छेदोपस्थापना संयम का उपदेश ही नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com . . - Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) था । भगवान् ऋषभदेव और भगवान महावीर ने इसका भी उपदेश दिया ! मुनियों के लिये कमंडलु रखना श्रावश्यक है, परन्तु तीर्थङ्कर और सप्त ऋद्धि वाले कमंडलु नहीं रखते । मतलब यह कि व्यवहार धर्म का पालन श्रावश्यकता के अनुसार किया जाता है— उसका कोई निश्चित रूप नहीं है । श्रावकाचार में तो यह अन्तर और भी अधिक हो जाता है । छटवीं प्रतिमा में कोई रात्रि भोजन का त्याग बताते हैं तो कोई दिनमें स्त्री-सेवन का त्याग ! अष्ट मूलगुण तो समय समय पर बदलते ही रहे हैं और वे इस समय चार तरह के पाये जाते हैं ! किसी के मतसे वेश्यासेवी भी ब्रह्मचर्यावती हो सकता है किसी के मत से नहीं ! जो लोग यह समझते हैं कि निश्चयधर्म एक है इसलिये व्यवहारधर्म भी एक होना चाहिये, उन्हें उपर्युक विवेचन पर ध्यान देकर अपनी बुद्धि को सत्यमार्ग पर लाना आवश्यक है । कई लोग कहते हैं- "ऐसा कोई सामाजिक नियम श्रथवा क्रिया नहीं है जो धर्म से शून्य हो; सभी के साथ धर्म का सम्बन्ध है अन्यथा धर्मशून्य किया अधर्म ठहरेगी" । यह कहना बिलकुल ठीक है । परन्तु जब येही लोग कहने लगते हैं कि सामाजिक नियम तो बदल सकते हैं, परन्तु व्यवहार धर्म नहीं बदल सकता तब इनकी अक्ल पर हँसी आने लगती है । वे व्यवहार धर्म के बदलने से निश्चय धर्म बदलने की बात कहके अपनी नासमझी तो प्रगट करते हैं, किन्तु धर्मानुकूल सामाजिक नियम बदलने की बात स्वीकार कर के भी धर्म में परिवर्तन नहीं मानते। ऐसी समझदारी तो अवश्य ही अजायबघर में रखने लायक है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) यहाँ हम इस बात का खुलासा कर देना चाहते हैं कि व्यवहारधर्म के बदलने से निश्चय धर्म नहीं बदलता । दवाइयाँ हज़ारों तरह की होती हैं और उन सबसे बीमार आदमी निरोग बनाया जाता है । रोगियों की परिस्थिति के अनुसार ही दवाई की व्यवस्था है। एक रोगी के लिये जो दवाई है दूसरे को वही विष हो सकता है। एक के लिये जो विष है, दूसरे को वही दवाई हो सकती है । प्रत्येक रोगी के लिये औषध का विचार जुदा जुदा करना पड़ता है। इसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के लिये व्यवहारधर्म जुदा जुदा है। सभी रोगों के लिये एक ही तरह की दवाई बताने वाला वैद्य जितना मूर्ख है उससे भी ज्यादा मूर्ख वह है जो सभी व्यक्तियों के लिये सभी समय के लिये एक ही सा व्यवहार धर्म बतलाता है। इस पर थोडासा विवेचन हमने ग्यारहवं प्रश्न के उत्तर में भी किया है। विधवा-विवाह से सम्यक्त्व और चारित्र में कोई दूषण नहीं पाता है इस बात को भी हम विस्तार से पहिले कहचुके हैं । विधवा-विवाह से चारित्र में उतनी ही त्रुटी होती है जितनी कि कुमारी विवाह से । अब इस विषय को दुहराना व्यर्थ है। उपसंहार ३१ प्रश्नों का उत्तर हमने संक्षेप में दिया है फिर भी लेख बढ़ गया है। इस विषय में और भी तर्क हो सकता है जिसका उत्तर सरल है। विचारयोग्य कुछ बाते रहगई हैं। उन सबके उल्लेख से सेख बढ़ जावेगा इसलिये उन्हें छोड़ दिया जाता है । इति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) प्रेरित पत्र श्रीमान सम्पादकजी महोदय ! मैं " जैन जगत्" पढ़ा करती हूँ और उसकी बहुतसी बातें मुझे अच्छी मालूम होती हैं। लेकिन श्रीयुत सव्यसाची जी के द्वारा लिखे गये लेख को पढ़कर मैं बड़ी चिन्ता में पड़ गई । उस लेख में विधवाविवाह का धर्म के अनुसार पोषण किया गया है । वह लेख जितना जबर्दस्त है उतना ही भयानक है। मैं पंडिता तो हूँ नहीं, इस लिए इस लेख का खण्डन करना मेरी ताक़त के बाहर है; परन्तु मैं सीधी साधी दो चार बातें कह देना उचित समझती हूँ । पहिली बात तो यह है कि सव्यसाचीजी विधवाओंके पीछे हाथ धोकर क्यों पड़े हैं ? वे बेचारी जिस तरह जीवन व्यतीत करती हैं उसी तरह करने दीजिए । जिस गुलामी के बन्धन से वे छूट चुकी हैं, क्या उसी बंधन में डालकर सव्य - साचीजी उनको उद्धार करना चाहते हैं ? गुलामीका नाम भी क्या उद्धार है ? जो लोग विधवाविवाह के लिये एड़ीसे चोटी तक पसीना बहाते हैं उनके पास क्या विधवाओं ने दरख्वास्त भेजी है ? यदि नहीं तो इस तरह अनावश्यक दया क्यों दिखलाई जाती है ? फिर वह भी ऐसी हालत में जबकि स्त्रियाँ ही स्वयं उस दया का विरोध कर रही हों । भारतीय महिलाएँ इस गिरी हुई अवस्थामें भी अगर सिर ऊँचा कर सकती हैं तो इसीलिये कि उनमें सीता, सावित्री सरीखी देवियाँ हुई हैं। विधवाविवाह के प्रचार से क्या सीता सावित्रीके लिये श्रङ्गुल भर जगह भी बचेगी ? क्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) वह अादर्श नष्ट न हो जावेगा ? अादर्श बने रहने पर उन्नति के शिखर से गिर पड़ने पर भी उन्नति हो सकती है, परन्तु श्रादर्श के नष्ट होजाने पर उन्नति की बात ही उड़ जायगी। सम्पादकजी ! मैं धर्मके विषयमें तो कुछ समझती नहीं हूँ।न बालकी खाल निकालने वाली युक्तियाँ ही दे सकती हूँ। सम्भव है सव्यसाची सरीखे लेखकों की कृपा से विधवा विवाह धर्मानुकूल ही सिद्ध हो जाय, परन्तु मेरे हृदय की जो श्रावाज़ है वह मैं आपके पास भेजती हूँ और अन्त में यह कह दैना भी उचित समझती हूँ कि शास्त्रों में जो पाठ प्रकार के विवाह कहे हैं उनमें भी विधवाविवाह का नाम नहीं है। प्राशा है सव्यसाचीजी हमारी बातोंका समुचित उत्तर देंगे। आपकी भेगिनी-कल्याणी । . कल्याणी के पत्र का उत्तर । (लेखक-श्रीयुत 'सव्यसाची' ) . बहिन कल्याणी देवीने एक पत्र लिखकर मेरा बड़ा उप. कार किया है। बैरिस्टर साहिब के प्रश्नों का उत्तर देते समय मुझे कई बातें छोड़नी पड़ी हैं। बहिन ने उनमें से कई बातों का उल्लेख कर दिया है। आशा है इससे विधवाविवाह की सचाई पर और भी अधिक प्रकाश पड़ेगा। पहिली बात के उत्तर में मैं निवेदन करना चाहता हूँ कि विधवाविवाह से स्त्रियोंको गुलाम नहीं बनाया जाताहै । हमारे खयाल से जो विधवाएँ ब्रह्मचर्य नहीं पाल सकतीं उनके लिये पतिके साथ रहना गुलामी का जीवन नहीं है। क्या सधवा जीवन को स्त्रियाँ गुलामी का जीवन समझती हैं ? यदि हां, तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) उन्हें विधवा बनने के लिये श्रातुर होना चाहिये - पति के मरने पर खुशी मनाना चाहिये; क्योंकि वे गुलामी से छूटी हैं; परन्तु ऐसा नहीं देखा जोता । हमारी समझ में स्त्रियाँ वैधव्य को अपने जीवन का सबसे बड़ा दुःख समझती हैं और पतिके साथ रहने को बड़ा सुख । समाज की दशा देखकर भी कहना पड़ता है कि जितनी गुलामी विधवा को करना पड़ती है उतनी सधवा को नहीं । सधवा एक पुरुष की गुलामी करती है, साथ ही में उससे कुछ गुलामी कराती भी है; परन्तु विधवा को समस्त कुटुम्ब की गुलामी करना पड़ती है। उसके ऊपर सभी श्राँख उठाते हैं, परन्तु वह किसीके साम्हने देख भी नहीं सकती। उस के आँसुओंका मूल्य करीब करीब 'नहीं' के बराबर हो जाता है । उसका पवित्र जीवन भी शंका की दृष्टि से देखा जाता है। अपशकुन की मूर्ति तो यह मानी ही जाती है। क्या गुलामी की जंजीर टूटने का यही शुभ फल है ? क्या स्वतन्त्रता के येही चिन्ह हैं। थोड़ी देर के लिये मान लीजिये, कि वैधव्य-जीवन बड़ा सुखमय जीवन है, परन्तु विधवाविवाह वाले यह कब कहते हैं कि जो विधवा-विवाह न करेगी वह नरक जायगी ? उनका कहना तो इतना ही है कि जो वैधव्य को पवित्रता से न पाल सके वे विवाह करलें ; क्योंकि कुमारी-विवाह के समान विधवाविवाह भी धर्मानुकूल है। किन्तु जो वैधव्य को निभा सकती हैं वे ब्रह्मचारिणी बने ! श्रार्थिका बने! कौन मना करता है ? विधवा विवाह के प्रचारक कोई जबर्दस्ती नहीं करते। वे धर्मानुकूल सरल मार्ग बताते हैं। जिसकी खुशी हो चले, न हो न चले। हाँ, इतनी बात अवश्य है कि ऐसी बहिनें गुप्त व्यभिचार और भ्रूण हत्याओं से दूर रहें। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) दूसरी बात के उत्तर में मेरा निवेदन है कि विधवाओं ने मेरे पास दरख्वास्त नहीं भेजी है। आम तौर पर भारतवर्ष में विवाह के लिये दरख्वास्त भेजने का रिवाज भी नहीं है । मैं पूछता हूँ कि हमारे देश में जितनी कन्याओं के विवाह होते हैं उनमें से कितनी कन्याएँ विवाह के लिये दरख्वास्त भेजती हैं यदि नहीं भेजतीं तो उनका विवाह क्यों किया जाता है ? क्या कन्याओं का विवाह करना अनावश्यक दया है ? यदि नहीं तो विधवाओं का विवाह करना भी अनावश्यक दया नहीं है। दूसरी बात यह है कि दरख्वास्त सिर्फ कागज पर लिख कर ही नहीं दी जाती-यह कार्यों के द्वारा भी दी जाती है। विधवा समाज ने भ्रण हत्या, गुप्त व्यभिचार आदि कार्यों से समाज के पास ज़बर्दस्त से ज़बर्दस्त दरख्वास्ते मेजी हैं । इस लिये उनका विवाह क्यों न करना चाहिये ? कन्याएँ न तो काग़ज़ों पर दरख्वास्त भेजती हैं, नम्रण हत्या प्रादि कुकार्यों से फिर भी उनका विवाह एक कर्तव्य समझा जाता है । तब विधवाओं का विवाह कर्तव्य क्यों न समझा जाय ? कुछ दिनों से कुछ महापुरुषों (?) ने स्त्रियों के द्वारा भी विधवाविवाहके विरोध का स्वाँग कराना शुरूकर दिया है, परंतु कुमारी विवाह के निषेध के लिये हम कुमारियों को खड़ा कर सकते हैं । फिर क्या कल्याणीदेवी, कुमारियों के विवाह को भी अनुचित दया का परिणाम समझेगी ? बात यह है कि शताब्दियों की गुलामी ने स्त्रियों के शरीर के साथ प्रात्मा और हृदय को भी गुलाम बना दिया है। उनमें अब इतनी हिम्मत नहीं कि वे हृदय की बात कह सकें। अमेरिका में जब गुलामी की प्रथा के विरुद्ध अब्राहमलिंकन ने युद्ध छेड़ा तो स्वयं गुलामों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) ने अपने मालिकों का पक्ष लिया, और जब वे स्वतन्त्र हो गये तो मालिकों की ही शरण में पहुँचे। गुलामी का ऐसा ही प्रभाव पड़ता है। ज़रा स्वतन्त्र नारियों से ऐसी बात कहिये - योरोप की महिलाओं से विधवाविवाह के विरोध करने का अनुरोध कीजिये -तब मालूम हो जायगा कि स्त्री हृदय क्या चाहता है ? हमारे देश की लज्जालु स्त्री छिपे छिपे पाप कर सकती हैं; परन्तु स्पष्ट शब्दों में अपने न्यायोचित अधिकार भी नहीं माँग सकतीं । एक विधवा से - जिसके चिन्ह वैधव्य पालन के अनुकूल नहीं थे - एक महाशय ने विधवाविवाह का ज़िकर किया तो उनको पचासों गालियाँ मिलीं, घर वालों ने गालियाँ दीं और बेचारों की वही फ़ज़ीहत की । परन्तु कुछ दिनों बाद वह एक श्रादमी के घर में जाकर बैठ गई ! इसी तरह हज़ारों विधवाएँ मुसलमानों के साथ भाग सकती हैं, भ्रूणहत्या कर सकती हैं, गुप्त व्यभिचार कर सकती है, परन्तु मुँह से अपना जन्म सिद्ध अधिकार नहीं माँग सकतीं । प्रायः प्रत्येक पुरुष को इस बात का पता होगा कि ऐसे कार्यों में स्त्रियां मुँह से 'ना', 'ना' करती हैं और कार्य से ' हाँ ', 'हाँ' करती हैं, इस लिये स्त्रियों के इस विरोध का कुछ मूल्य नहीं है । बहिन कल्याणी ने अपने पत्र में सीता सावित्री श्रादि की दुहाई दी है। क्या बहिन ने इस बात पर विचार किया है कि श्राज सैकड़ों वर्षों से उत्तर प्रान्तके जैनियों में विधवाविवाह का रिवाज बन्द है लेकिन तब भी कोई सीता जैसी पैदा नहीं हुई है? बात यह है कि पशुओं के समान गुलाम स्त्रियोंमें सीता जैसी स्त्री पैदा हो हा नहीं सकतीं, क्योंकि डंडे के बलपर जो धर्म का ढोंग कराया जाता है वह धर्म ही नहीं कहलाता है । बहिनका कहना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) है कि "विधवाविवाह के प्रचार से क्या सीता सावित्री के लिये अंगुल भर भी जगह बचेगी?" हमारा कहना है कि जहाँ धर्म के लिये अंगुल भर भी जगह नहीं है, वहाँ हाथ भर जगह निकाल लेने वाली ही सीता कहलातीहै । ज़बर्दस्ती या मौका न मिलने से ब्रह्मचर्य का ढोंग करने वाली यदि सीता कहलावे तोवेचारी सीताओं का कौड़ी भर भी मूल्य न रहे। सीता जी का महत्व इसी लिये है कि वे जंगल में रहना पसंद करती थीं और तीन खंड के अधिपति रावण की विभूतियों को ठुकराती थीं । जब सीता जी लंका में पहुँची और उन्हें मालूम हुआ कि हरण करने वाला तो विद्याधरोका अधिपति है तभी उन्हें करीब २ विश्वास हो गया कि अब छुटकारा मुश्किल है। रावण जब युद्ध में जाने लगा और सीता जी से प्रसन्न होने को कहा तो उस समय सीता जी को विश्वास हो गया था कि राम लक्ष्मण, रावण से जीत न सकेंगे । इसीलिये उनने कहा कि मेरा संदेश बिना सुनाये तुम राम लक्ष्मण को मत मारना । मतलब यह कि रावण की शक्ति का पूरा विश्वाश होने पर भी उनने रावण को वरण न किया इसीलिये सोता का महत्व है। आजकल जो विधवाएँ समाज के द्वारा जबर्दस्ती बन्धन में डाली गई हैं, उन्हें सीता समझना सीता के चरित्र का अपमान करना है। विधवाविवाह के आन्दोलन से सिर्फ विधवाओं को अपने विवाह का अधिकार मिलता. न्हें विवाह के लिये कोई विवश नहीं करता । अगर वे नी खुशी से वैधव्य का पालन करें। परन्तु बहिन कल्यापीका कहना है कि विधवाविवाह से सीताके लिये अंगुल भर भी जगह न बचेगी। इसका मतलब यह है कि आजकल की विधवाएँ पुनर्विवाह के अधिShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) कार सरीखा हलके से हलका प्रलोभन भी नहीं जीत सकतीं! क्या हमारी बहिन एसी ही स्त्रियों से रावण के प्रलोभन जीतने की आशा रखती हैं ? वहिन, सञ्ची विधवाएँ तो उस समय पैदा होगी जिस समय समाज में विधवाविवाह का खूब प्रचार होगा। विधवा और ब्रह्मचारिणी में बड़ा अन्तर है। पति मरने से विधवा होती है न कि ब्रह्मचारिणी । उसके लिये त्याग की ज़रूरत है और त्याग तभी हो सकता है, जब प्राप्ति हो या प्राप्ति की आशा हो। अन्त में बहिन ने कहा है कि पाठ प्रकार के विवाहो में विधवाविवाह का उल्लंख नहीं है । परन्तु इन आठ तरह के विवाहों में कुमारी-विवाह, अन्यगोत्र विवाह, सजातीय विवाह आदि का उल्लेख भी कहाँ है ? क्या ये सब विवाह भी नाजायज़ हैं ? बात यह है कि ये पाठ भेद विवाह की रीतियों के भेद है अर्थात् विवाह आठ तरह से हो सकता है । अर्थात् सजातीय विवाह, विजातीय विवाह, कुमारीविवाह, विधवा विवाह, अनुलोम विवाह, प्रतिलोम विवाह, आदि सभी तरह के विवाह आठ रीतियों से हो सकते हैं। इसीलिये कुमारी विवाह विधवा विवाह आदि भेदों को रीतियों में शामिल नहीं किया है। जैसे कुमारीविवाह के पाठ भेद हैं उसी तरह विधवाविवाह के भी पाठ भेद हैं। प्राशा है बहिन को हमारे उत्तरों से सन्तोष होगा। अगर फिर भी कुछ शंका रहे तो मैं उत्तर देने को तैयार हूँ। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरूरी निवेदन। १-आजकल हिन्दी “जैनगज़ट” में जो श्रीयुत “सव्यसाची” के लेख (जो कि “जैन जगत में निकल चुका है ) के उत्तर में एक लेख क्रमशः निकल रहा है, उसका मुंह तोड़ जवाब श्रीयुत “ सव्यसाची" जी भी तय्यार करते जा रहे हैं । वह शीघ्र ही हिन्दी “जैन गजट” में पूर्ण छप चुकने पर "विधवा विवाह और जैन धर्म के दूसरे भाग के रूप - में प्रकाशित होगा। २-“उजले पोश बदमाश” की भूमिका में जो “ सेठ जी की काली करतूत” के लिये सूचित किया गया था, वह पुस्तक भी लिखी जा रही है, शीघ्र ही प्रकाशित होगी। निवेदक-मंत्री। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशाद zlcPbilo 0 अन्य उपयोगी 1. शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहर। श्री पं० जुगलकिशोर जी मु 2. विवाह चत्र प्रकाश , 3. जैन जाति सुदशा प्रवर्तक-लेखक श्री बाबू सूरज भानु वकील, 4. मंगलादेवी५. क्वारों की दुर्दशा६. गृहस्थ धर्म७. राजदुलारी-- 8. विधवाविवाह और उनके संरक्षकों से अपील-लेखक ब्र० शीतलप्रसादजी, // 6. उजलेपोश बदमाश-लेखक पंडित अयोध्याप्रसाद गोयलीय , d) 10. जैनधर्म और विधवाविवाह-लेखक / श्री० सव्यसाची, 11. विधवाविवाह समाधान- // मिलने का पता : जौहरीमल सर्राफ बड़ा दरीबा, देहली। . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com