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________________ ( ३१ ) किन्तु अनिवार्य वैधव्य की कुप्रथा है। धर्म के वेष में छिपी हुई यह धर्मनाशक प्रथा बंद हो जाय तो अविवाहित रहने का मौका न आवे । प्रश्न (२०)-एक लाख तेतालीस हज़ार विधवाएँ अगर समाजमें न होती तो जनसंख्या बढ़ सकती थी या नहीं? उत्तर-इतनी विधवाओं के स्थान में अगर सधवाएँ होती तो संख्या अवश्य बढ़ती। मदुमशुमारी की रिपोटौ से मालूम होता है कि जिन समाजों में विधवा-विवाह का रिवाज है उनकी जनसंख्या नहीं घट रही है, बल्कि बढ़ रही है। जो लोग ऐसा कहते हैं कि "क्या कोई ऐसी शक्ति है जो कि दैव. बल का अवरोधक होकर विधवा न होने दे ?" ऐसा कहने वालों को बुद्धि मिथ्यात्व के उदय से भ्रष्ट होगई है-वे दैवै. कांतवादी बन गये हैं । कुमारपन और कुमारीपन, तथा विधुरपन भी दैव के उदय से होते हैं, किन्तु उनके दूर करने का उपाय है। इसी प्रकार वैधव्य के दूर करने का भी उपाय विधवा-विवाह है। हाथकंकण को पारसी क्या ? सौ पचास विधवा-विवाह करके देख लो। जितने विवाह होंगे उतनी विधवाएँ घट जायँगी। अगर विधवाओं का संसारी जीवों की तरह होना अनिवार्य है तो जैसे संसारी जीवों को सिद्ध बनाने की चेष्टा की जाती है उसी तरह विधवाओं को भी सधवा बनाने की चेष्टा करना चाहिये । छः महीना आठ समय में ६०८ जीव संसारी से सिद्ध बन जाते हैं। अगर इतने समय में इतनी ही विधवाएँ सधवा बनायी जाँय तो सब विधवाएं न घटने पर भी बहुत घट जावेगी। अगर कोई कहे कि "विधवा-विवाह से नित्य नये उत्पात Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034860
Book TitleJain Dharm aur Vividh Vivah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha
Publication Year1931
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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