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________________ ( २२ ) विधवा के व्रत, सप्तम प्रतिमासे नीचे हैं उसके लिये विवाह धर्मानुकूल है । श्रावक अगर आहार दान दे तो धर्मानुकूल है और मुनि अगर ऐसा करे तो धर्मविरुद्ध है । भाषा गुप्ति का पालन करनेवाला (मौनव्रती) अगर सच बात भी बोले तोधर्म विरुद्ध है और समिति का पालन करने वाला बोले तो धर्मानुकूल है । मतलब यह है कि जैनधर्म में कोई कार्य सर्वथा धर्म: विरुद्ध नहीं कहा जाता । उसके साथ अपेक्षा रहती है। यद्यपि जैनधर्म में यह नहीं कहा गया है कि एक अनर्थ के लिये दूसरा अनर्थ करो; फिर भी इतनी अाज्ञा अवश्य है कि बहुत अनर्थ को रोकने के लिये थोड़े अनर्थ की आवश्यक्ता हो तो उसका प्रयोग करो। दूसरे अनर्थ का निषेध है,परन्तु उस अनर्थ के कम करने का निषेध नहीं है-जैसे एक आदमी सब तरह के मांस खाता था, उसने काक मांस छोड़ दिया तो यद्यपि वह अन्य मांस खाता रहा, फिर भी जितनो अनर्थ उसने रोका उतना ही अच्छा किया। नासमझ व्यक्ति जैनधर्म के ऐसे कथन को युक्तिप्रमाणशून्य प्रमत्त उपदेश समझते हैं,परन्तु जैनधर्म के उपदेश में कोरी लढवाज़ी नहीं है-उसके भीतर वैज्ञानिक विचार पद्धति मौजूद है। अगर कोई कहे कि क्या बड़े बड़े पापों की अपेक्षा छोटे छोटे पाप ग्राह्य हैं ? तो जैनधर्म कहेगा-अवश्य । सप्तव्यसन का सेवी अगर सिर्फ व्यभिचारी रहजोय तो अच्छा (यद्यपि व्यभिचार पाप है); व्यभिचारी अगर परस्त्री का त्याग कर सिर्फ वेश्या सेवी रहजाय तो अच्छा है (यद्यपि वेश्या सेवन पाप है); वेश्या सेवन का भी त्याग करके अगर कोई स्व. स्त्री सेवी ही रहजाय तो अच्छा ( यद्यपि महाव्रत की अपेक्षा स्वस्त्री सेवन भी पाप है); यह विषय इतना स्पष्ट है कि ज्यादा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034860
Book TitleJain Dharm aur Vividh Vivah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha
Publication Year1931
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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