Book Title: Jain Dharm aur Vividh Vivah
Author(s): Savyasachi
Publisher: Jain Bal Vidhva Sahayak Sabha

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Page 47
________________ (४५) हूँढने के लिये अपने पुनर्विवाह के लिये स्वयम्बर किया था । माना कि उसे दूसरा विवाह करना नहीं था, परंतु इससे यह अवश्य ही सिद्ध होता है कि उस समय पुनर्विवाह का रिवाज था और राजा लोग भी उसमें योग देते थे। उपयुक्त विवेचन से इतनी बात सिद्ध हुई कि चतुर्थकाल में अजैन लोगों में स्त्रियों के पुनर्विवाह का रिवाज था । अब हम धागे बढ़ते हैं। चतुर्थ काल में ऋषभदेव भगवान के बाद शांतिनाथ भगवान के पहिले प्रत्येक तीर्थकर के अंतराल में ऐसा समय प्राता रहा है जब की जैन धर्म का विच्छेद हो जाता था । ऐसे समय में अजैनों के धार्मिक विश्वास के अनुसार विधवाविवाह, नियोग श्रादि अवश्य होते थे । धर्मविच्छेद का वह अंतराल असंख्य वर्षों का होता था। इससे करोड़ों पीढ़ियाँ इसी तरह निकल जाती थी और इतनी पीढ़ियों तक विधवा विवाह, नियोग आदि की प्रथा चलती रहती थी। फिर इन्हीं में जैनी लोग पैदा होते थे अर्थात् दीक्षा लेकर जैनी बनते थे। इस लिये जैनी भी इस प्रथा से अछते नहीं थे। दूसरी बात यह है कि दीक्षान्वय क्रिया के द्वारा अजैनों को जैनी बनाया जाता था। इस तरह भी इस प्रथो की छूत लगती रहती थी। जैन शास्त्रों के अनुसार ही जब इतनी बात सिद्ध हो जाती है तब विधवा विवाह का प्रथमानुयोग में उल्लेख न होना सिर्फ आश्चर्य की बात रह जाती है; विशेष महत्व की नहीं । परंतु ज़रा और गम्भीर विचार करने पर इसकी आश्चर्यजनकता भी घट जाती है और महत्व तो बिलकुल नहीं रहता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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