Book Title: Jain Dharm aur Vividh Vivah
Author(s): Savyasachi
Publisher: Jain Bal Vidhva Sahayak Sabha

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Page 49
________________ ( ४७ ) कहा जाय कि कोई सम्बन्धी तो होंगे, उन्हें तो दुःख हो सकता है; लेकिन यह तो ठीक नहीं, क्योंकि इस विषय में स्वामी को छोड़ कर किसी दूसरे के दुःख से पाप नहीं होता। हां अगर स्त्री स्वयं राजी न हो तो बात दूसरी है । अन्यथा रुक्मणीहरण आदि बीसो उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनमें माता पिता को दुःख हुआ था फिर भी वह पाप नहीं माना गया। इसका कारण यही है कि रुक्मणी का कोई स्वामी नहीं था जिसके दुःख की पर्वाह की जाती और वह तो स्वयं राजी थी ही। विधवा के विषय में भी बिलकुल यही बात है। उसका कोई स्वामी तो है नहीं जिसके दुःख की पर्वाह की जाय और यह स्वयं राजी है । हां, अगर वह राजी न हो तो उसका विवाह करना अवश्य पाप है । परंतु यह बात कन्या के विषय में भी है । कन्या अगर राजी न हो तो उसका विवाह करना अन्याय है; पाप है। इस विवेचन से हमें यह अच्छी तरह मालूम हो जाता है कि गौतमगणधर ने विधवा विवाह की निन्दा क्यों नहीं की ? शास्त्रों में विधवा विवाह का उल्लेख क्यों नहीं है ? इस के पहले हमें यह विचारना चाहिये कि विधवाओं को उल्लेख क्यों नहीं है ? विधवाएँ तो उस समय भी होती थीं? परंतु जिस प्रकार कन्याओं के जीवन का चित्रण है, पत्नीजीवन का चित्रण है, उसी प्रकार प्रायः वैधव्य का चित्रण नहीं है। इतना ही नहीं बल्कि वैधव्य दीक्षा किसी ने ली इसका भी चित्रण नहीं है। इस कारण क्या हम यह कह सकते हैं कि उस समय विधवाएँ नहीं होती थी या वैधव्य दीक्षा कोई नहीं लेता था ? यदि इन चित्रणों के अभाव में भी विधवा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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