Book Title: Jain Dharm aur Vividh Vivah
Author(s): Savyasachi
Publisher: Jain Bal Vidhva Sahayak Sabha

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Page 56
________________ ( ५४ ) प्रेरित पत्र श्रीमान सम्पादकजी महोदय ! मैं " जैन जगत्" पढ़ा करती हूँ और उसकी बहुतसी बातें मुझे अच्छी मालूम होती हैं। लेकिन श्रीयुत सव्यसाची जी के द्वारा लिखे गये लेख को पढ़कर मैं बड़ी चिन्ता में पड़ गई । उस लेख में विधवाविवाह का धर्म के अनुसार पोषण किया गया है । वह लेख जितना जबर्दस्त है उतना ही भयानक है। मैं पंडिता तो हूँ नहीं, इस लिए इस लेख का खण्डन करना मेरी ताक़त के बाहर है; परन्तु मैं सीधी साधी दो चार बातें कह देना उचित समझती हूँ । पहिली बात तो यह है कि सव्यसाचीजी विधवाओंके पीछे हाथ धोकर क्यों पड़े हैं ? वे बेचारी जिस तरह जीवन व्यतीत करती हैं उसी तरह करने दीजिए । जिस गुलामी के बन्धन से वे छूट चुकी हैं, क्या उसी बंधन में डालकर सव्य - साचीजी उनको उद्धार करना चाहते हैं ? गुलामीका नाम भी क्या उद्धार है ? जो लोग विधवाविवाह के लिये एड़ीसे चोटी तक पसीना बहाते हैं उनके पास क्या विधवाओं ने दरख्वास्त भेजी है ? यदि नहीं तो इस तरह अनावश्यक दया क्यों दिखलाई जाती है ? फिर वह भी ऐसी हालत में जबकि स्त्रियाँ ही स्वयं उस दया का विरोध कर रही हों । भारतीय महिलाएँ इस गिरी हुई अवस्थामें भी अगर सिर ऊँचा कर सकती हैं तो इसीलिये कि उनमें सीता, सावित्री सरीखी देवियाँ हुई हैं। विधवाविवाह के प्रचार से क्या सीता सावित्रीके लिये श्रङ्गुल भर जगह भी बचेगी ? क्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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