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( ५१ ) उत्तर--सामाजिक नियम अथवा व्यवहार धर्म, इन दोनों शब्दों के अर्थ में अन्तर है, परंतु सामाजिक नियम, व्यवहार धर्म की सीमा का उल्लंघन नहीं कर सकते हैं । इस लिये उनमें अभेद रूप से व्यवहार किया जाता है। जो सामा. जिक नियम व्यवहार धर्म रूप नहीं हैं अर्थात् निश्चय धर्म के पोषक नहीं हैं वे नादिरशाही के नमूने अथवा भेड़ियोधसानी मूर्खता के चिन्ह हैं । व्यवहार धर्म ( तदन्तर्गत होने से सामाजिक नियम भी ) सदा बदलता रहता है। व्यवहार धर्म में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा है । जब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावमें सदा परिवर्तन होता है,तब तदाश्रित व्यवहार धर्म में परिवर्तन क्यों न होगा ? व्यवहार धर्म में अगर परिवर्तन न किया जाय तो धर्म जीवित ही नहीं रह सकता।
मोक्षमार्ग में ज्योज्यों उच्चता प्राप्त होती जाती है त्यों त्यों भेद घटते जाते है। सिद्धों में परस्पर जितना भेद है उससे ज़्यादा भेद अरहंतों में हैं और उससे भी ज़्यादा मुनियों में और उससे भी ज्यादा श्रावकों में है। - ऊपरी गुण स्थानों में कर्मों का नाश, केवलज्ञानादि की उत्पत्ति, शुक्ल ध्यान आदि की दृष्टि से समानता है; परन्तु शुक्ल ध्यान के विषय प्रादिक की दृष्टि से भेद भी है । और भी बहुत सी बातों में भेद है। कोई सामायिक संयम रखता है, कोई छेदोपस्थापना । कोई स्त्री वेदो है, कोई पुवेदी, कोई नपुसक वेदी । इन जुड़ जुदे परिणामों से भी सब यथाख्यात संयम को प्राप्त करते हैं। भगवान अजितनाथ से लेकर भग. वान् महावीर तक छेदोपस्थापना संयम का उपदेश ही नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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