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( ४१ ) अधिक प्रमाण हैं । इस लिये यह बात सिद्ध होती है कि हिन्दुओं में पहिले आमतौर पर पुनर्विवाह होता था। ऐसे विवाहों को सन्तान धर्मपरिवर्तन करके जैनी भी बनती होगी। जिस प्रकार अाज दक्षिण में विधवा विवाह चालू है उसो तरह उस ज़माने में उत्तर प्रान्त में भी रहा होगा। कौटिलीय अर्थशास्त्र के देखने से यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है । चाणिक्य ने यह प्रन्थ महाराजा चंद्रगुप्त के राज्य के लिये बनाया था, और जैनग्रंथों से यह सिद्ध है कि महाराजा चंद्रगुप्त जैनी थे। एक जैनो के राज्य में पुनर्विवाह के कैसे नियम थे, यह देखने योग्य है
"हस्व प्रवासिनां शुद्र वैश्य क्षत्रिय ब्राह्मणानां भार्याः संवत्सरोत्तरं कालमाकांक्षरनजाताःसंवत्सराधिकं प्रजाताः। प्रतिविहिता द्विगुणं कालं ॥ अप्रतिविहिताः सुखावस्था विभूयुः परंचत्वारिवाण्यष्टौवा हातयः ॥ ततो यथा दत्त मादाय प्रमुश्चयुः। ब्राह्मणमधीयानं दश वर्षाण्य प्रजाता द्वादश प्रजाता राजपुरुषमायुः क्षयादाक्षेत ॥ सवर्णतश्च प्रजाता नापवादं समेत् । कुटुम्बर्द्धि लोपे वा सुखावस्थै विमुक्ता यथेष्टं विन्देत जीवितार्थम् ।'
अर्थात्-थोड़े समय के लिये बाहर जाने वाले शूद्र वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मणों की पुत्रहीन स्त्रियाँ एक वर्ष तथा पुत्रवती इससे अधिक समय तक उनके पानेकी प्रतीक्षा करें। यदि पति उनको श्राजीविका का प्रबन्ध कर गये हों तो वे दुगुने समय उनकी प्रतीक्षा करें और जिनके भोजनाच्छादन का प्रबन्ध न हो उनका उनके समृद्ध बंधुबांधव चार वर्ष या अधिक से अधिक आठ वर्ष तक पालन पोषण करें। इसके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com