Book Title: Jain Dharm aur Vividh Vivah
Author(s): Savyasachi
Publisher: Jain Bal Vidhva Sahayak Sabha

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Page 21
________________ ( १६ ) भूसा ही मिलेगा, अन्न नहीं । व्रती के व्रत का लाभ तो वूती ही पावेगा. दूसरों को नहीं मिल सक्ता, किन्तु उसकी संतान से दूसरे भी लाभ उठावेंगे, समाज की स्थिति कायम रहेगी इस लिये सामाजिक दृष्टि से सन्तान मुख्य फल है, परन्तु धार्मिक दृष्टि से व्रत ही मख्य फल है, पुत्रादिक नहीं । धार्मिक दृष्टि से 'पुत्तसमो वैरिओणत्थि' (पुत्र के समान कोई बैरी नहीं है ) इत्यादि वाक्यों से संतान की निन्दा हो की गई है। इस लिये धार्मिक दृधि से संतान के लिये विवाह मानना अनुचित है। वह काम वासना को सीमित करने के लिए किया जाता है। इसी बात को दूसरे स्थान पर और भी अच्छे शब्दों में कहा है। विषय विषमाशनोत्थित मोहज्वर जनिततोव तृष्णस्य । निःशाक्तिकस्य भवतः प्रायः पेयात्रु पक्रमः श्रेयान् ॥ _ "विषय रूपी अपथ्य भोजन से उत्पन्न हुआ जो मोह रूपी ज्वर, उस ज्वर से जिसको बहुत ही तेज़ प्यास लग रही है, और उस प्यास को सहने की जिसमें तोकत नहीं है उसको कुछ पीने योग्य श्रोषध देना अच्छा है। मतलब यह है कि उसे प्यास तो इतनी लगी है कि लोटे दो लोटे पानी भी पी सकता है, परन्तु वैद्य समझता है कि ऐसा करने से बीमारी बढ़ जायगी । इसलिए वह पीने योग्य औषध देता है जिससे वह प्यास न बढने पावे । इसी तरह जिसकी विषय की आकांक्षा बहुत तीव है, उसको विवाह द्वारा पेय औषध दी जाती है जिससे प्यास शांत रहे और रोग न बढ़ने पावे । मतलब यह की जैन शास्त्रों के अनुसार विवाह का मुख्य उद्देश्य विषय वासना को सीमित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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