Book Title: Jain Dharm aur Vividh Vivah
Author(s): Savyasachi
Publisher: Jain Bal Vidhva Sahayak Sabha

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Page 35
________________ ( ३३ ) जंजीर में न बँधना पड़ता। हमने विधवा-विवाह का विरोध करके स्त्रियों के मनुष्योचित अधिकारों को हड़पा, इसलिये अाज हमें दुनियाँ के साम्हने औरत बन के रहना पड़ता है। मनुष्यों को अछूत समझा; इसलिये आज हम दुनियाँ के अछूत बन रहे हैं । हमारे रानसी पापों का प्रकृति ने गिन गिनकर दंड दिया है। फिर भी हम उन्हीं राक्षसी अत्याचारों को धर्म समझते हैं ! कहते हैं-विधवा-विवाह से शरीर की विशुद्धि नष्ट हो जायगी! जिस देह के विषय में जैन समाज का बच्चा बच्चो जानता है पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादि ते मैली । नव द्वार बह घिनकारी, अस देह करे किम यारी ॥ ऐसी देह में जो विशुद्धि देखते हैं उनकी आँखें और हृदय किन पाप परमाणुओं से बने हैं, यह जानना कठिन है। व्यभिचारजात शरीर से जब सुदृष्टि सरीखे व्यक्ति मोक्ष तक पहुंचे हैं तब जो लोग ऐसे व्यक्तियों को जैन भी नहीं समझते उन्हें किन मूखों का शिरोमणि माना जाय ? जैन धर्म आत्मा का धर्म है न कि रक्त, मांस और हड्डियों का धर्म । चमार . भी रक्त, मांस में धर्म नहीं देखते। फिर जो लोग इन चीज़ों में धर्म देखते हैं, उन्हें हम क्या कहें ? प्रश्न (२१)—व इसका उत्तर इस में से हटा दिया गया है क्योंकि, इसका सम्बन्ध सम्प्रदाय विशेष के साधुओं से है। प्रश्न ( २२ )-क्या रजस्वला के रक्त में इतनी ताकत है कि वह सम्यग्दर्शन का नाश कर सके ? यदि नहीं तो क्या सम्यग्दर्शन के रहते अविवाहित रजस्वला के माता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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