Book Title: Jain Dharm aur Vividh Vivah
Author(s): Savyasachi
Publisher: Jain Bal Vidhva Sahayak Sabha

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Page 20
________________ ( १८ ) बहुशः समस्त विरतिं प्रदर्शितां यो न जातु गृहणाति । तस्यैक देश विरतिः कथनीयानेन बीजेन ॥ यो यति धर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्म मल्पमतिः । तस्य भग्वत्प्रवचने, प्रदर्शितं निग्रहस्थानं ॥ अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽति दूरमपिशिष्यः । अपदेऽपि संप्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ॥ महावत का उपदेश देने पर जो महावत ग्रहण न कर सके उसे अणुव्रत का उपदेश देना चाहिये । महाव्रत का उपदेश न देकर जो अणुव्रत का उपदेश देता है वह निग्रहीत है। क्योंकि अगर किसी के हृदय में मुनिव्रत धारण करने का उत्साह हो और बीच में ही अणुव्रत का उपदेश सुनकर वह सन्तुष्ट हो जाय तो उसके महादत पालन करने का मौका निकल जायगा। इससे साफ़ मालूम होता है कि प्राचार्य, अणुव्रत धारण करने की सलाह तभी देते हैं जब कोई महाव्रत न पाल सकता हो । अणुव्रत लड़को बच्चों के लिए नहीं,किंतु महावत पालन करने की असमर्थता के कारण किया जाता है । अणुव्रत के साथ आंशिक प्रवृत्ति होने से सन्तान भी उत्पन्न हो जाती है। यह अणुव्रत का गौणफल है, जैसे किसान के लिये भूसा। लड़कों बच्चों को जो मुख्यता देदी जाती है उसका कारण है समाज का लाभ । व्रत से वती का कल्याण होता है और सन्तान से समाज का । इस लिये व्रती को व्रत मुख्य फल है और सन्तान गौण फल है। दूसरे लोगों को सन्तान ही मुख्य है । जैसे-अन्न किसान को मुख्य है भूसा गौण । किन्तु किसान के घर रहने वाले बैलों को तो भूसा ही मुख्य है और अन्न गौण, क्योंकि बैलों को तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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