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त्याज्यानजस्त्रं विषयान् पश्यतोऽपि जिनाया। मोहात्त्यक्तुम शक्तस्य गृहिधर्मोनुमन्यते ॥
अर्थात्-जिनेन्द्र की प्राशा से जो विषयों को छोड़ने योग्य समझता है, किन्तु फिर भी चारित्र मोह कर्मकी प्रबलता से उनका त्याग नहीं कर सकता, उसको गृहस्थ धर्म धारण करने की सलाह दी जाती है।
इससे साफ मालूम होता है कि विवाह लड़कों बच्चों के लिए नहीं, किन्तु मुनि बनने की असमर्थता के कारण किया जाता है। हमारे जैन पंडितों ने जब से वैदिक धर्म की नकल करना सीखा है, तब से वे धर्म के नाम पर लड़को बच्चों की बातें करने लगे हैं । वैदिक धर्म में तो अनेक ऋण माने गये हैं जिनका चुकाना प्रत्येक मनुष्य को आवश्यक है। उनमें एक पितृ ऋण भी है। उनके ख़याल से संतान उत्पन्न कर देने से पितृ ऋण चुकजाता माना गया है किन्तु जैन धर्म में ऐसा कोई पितृ ऋण नहीं माना गया है जिसके चुकाने के लिये सन्तानोत्पत्ति करना धर्म कहलाता हो । विवाह का मुख्य उद्देश्य काम लालसा की उच्छखलता को रोकना है । हां, ऐसी हालत में सन्तान भी पैदा हो जाती है। यह भी अच्छा है, परंतु यह गौण फल है । सन्तानोत्पत्ति और काम लालसा की निवृत्ति, इनमें गौण कौन है और मुख्य कौन है, इसको निबटारा इस तरह हो जायगा-मान लीजिए कि किसी मनुष्य में मुनिव्रत धारण करने की पूर्ण योग्यता है । ऐसी हालत में अगर वह किसी प्राचार्य के पास जावे तो वह उसे मुनि बनने की सलाह देंगे या श्रावक बनकर पुत्रोत्पत्ति करने की सलाह देंगे? शास्त्रकार तो इस विषय में यह कहते हैंShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com