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( २० ) करना है। यह बात विधवा विवाह से भी होती है । अगर किसी विधवा बाई को विषय वासना रूपी तीव प्यास लगी है तो उसे विवाह रूपी पेय औषध क्यों न देनी चाहिये ? मर्द तो औषध के नाम पर लोटे के लोटे गटका करें और विधवाओं को एक बूंट औषध भी न दी जाय, यह कहाँ की दया है ? कहाँ का न्याय है ? कहाँ का धर्म है ? विवाह से जिस प्रकार पुरुषों के संक्लेश परिणाम मंद होते हैं, उसी प्रकार स्त्रियोंके भी होते हैं। फिर पुरुषों के साथ पक्षपात और स्त्रियों के साथ निर्दयता का व्यवहार क्यों ? धर्म तो पुरुषों की ही नहीं, स्त्रियों की भी सम्पत्ति है। इस लिये धर्म ऐसा पक्षपात कभी नहीं कर सकता।
प्रश्न (१०)-प्रत्येक बाल विधवा में तथा प्रौढ विधवा में भी आजन्म ब्रह्मचर्य पालने की शक्ति का प्रगट होना अनिवार्य है या नहीं ?
उत्तर-नहीं। यह बात अपने परिणामों के ऊपर निर्भर है। इसलिये जिन विधवाओं के परिणाम गृहस्थाश्रम से विरक्त न हुए हों उन्हें विवाह कर लेना चाहिये । कहा जा सकता है कि"जैसे मुनियों में वीतरागता आवश्यक होने पर भी सरागता आजाती है,उसी प्रकार विधवाओं में भी होसकती है, लेकिन शीलभ्रष्ट ज़रूर कहलायँगी। मुनि भी सरागता से भ्रष्ट माना. जाता है।" यह बात ठीक है। शक्ति न होने से हम अधर्म को धर्म नहीं कह सकते। परन्तु यहाँयह बात विचारणीय है कि जो कार्य मुनिधर्मसे भ्रष्ट करता है क्या वही श्रावकधर्म से भी भ्रष्ट करता है ? विवाह करने से प्रत्येक व्यक्ति मुनिधर्म से भ्रष्ट होजाता है, परन्तु क्या विवाह से श्रावक धर्म भी.छूट जाता है ? क्या
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