Book Title: Jain Dharm aur Vividh Vivah
Author(s): Savyasachi
Publisher: Jain Bal Vidhva Sahayak Sabha

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Page 17
________________ ( १५ ) उत्तर - 'कुछ' नहीं, किन्तु 'बहुत' न्यूनता आती है । विवाह के बिना तो प्रत्येक व्यक्ति को देख कर पापवासना जाग्रत होती है और वह वासना सदा ही जाग्रत रहती है; किंतु विवाह से तो एक व्यक्ति को छोड़कर बाक़ी सबके विषय में उसकी वासना मिट जाती है और वह वासना भी सदा जाग्रत नहीं रहती । कहा जा सकता है कि जिनकी काम लालसा श्रतिप्रबल है उनकी विवाह होने पर भी शान्त नहीं होती। अनेक विवा हित पुरुष और सधवा स्त्रियाँ व्यभिचारदूषित पायी जाती हैं, यह ठीक है। किन्तु विवाह तो व्यभिचार को रोकने का उपाय है । उपाय, सौ में दस जगह असफल भी होता है, किन्तु इससे वह निरर्थक नहीं कहा जा सकता । चिकित्सा करने पर भी लोग मरते हैं, शास्त्री बन करके भी धर्म को नहीं समझते, मुनि बन करके भी बड़े २ पाप करते हैं, इससे चिकित्सा आदि निरर्थक नहीं कहे जा सकते । यदि विवाह होने पर भी किन्हीं लोगों की काम वासना शान्त नहीं होती तो इससे सिर्फ विधवाविवाह का ही निषेध कैसे हो सकता है ? फिर तो विवाह मात्र का निषेध करना चाहिये और समाज से कुमार, कुमारियों के विवाह की प्रथा उड़ा देना चाहिये, क्योंकि व्यभिचार तो विवाह के बाद भी होता है । यदि कुमार कुमारियों के विवाह की प्रथा का निषेध नहीं किया जा सकता तो विधवाविवाह का भी निषेध नहीं किया जा सकता । एक महाशय ने लिखा है - "वास्तव में विवाहका उहेश्य काम लालसा की निवृत्ति नहीं है। विवाह इस जघन्य एवं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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