Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 08 Author(s): Atmaramji Maharaj Publisher: View full book textPage 6
________________ HIKARAxxx XXXAAAAXXEXB EXExxanxxxamroxERXXXDARODXEXXXXXIIXEDXX आत्मशुद्धिभावना (लेखक-श्रीयुत सेठ मनसाराम जी जीन्द) हे श्री जिनेन्द्र भगवन् / श्रीसिद्धभगवन् / श्रीकेवलीभगवन् / श्राप को मेरा अनेक वार नमस्कार हो / हे सर्वज्ञ वीतरागप्रभु ! मैं अनादि कालसे श्रज्ञान वश ससार चक्र मे फसा हुवा चारों गतियों में अनेक प्रकार के शारीरिक व मानसिक दु.खों का अनुभव करता आया हू। मेरे अति पुण्य और श्योपशम भाव के उदय से प्रार्य क्षेत्र, मनुष्य जन्म, उत्तम कुल, सत समागम, शास्त्रश्रवणादि, धर्म प्राप्त करने के दस वोलो की योगवाइ इस जन्म में मुझ को मिली है / हे परमारमन् ! अव आपके चरण कमलों में प्रार्थना करके मे यह चाहता हूँ मेरी श्रास्मा श्राठों प्रकार के कर्म मल 4 से रहित होकर शीघ्रातिशीघ्र मोक्ष गति को प्राप्त हो आपके पवित्र सद् | जीवन का अनुकरण करू / हे शाशनदेव / मेरी बुद्धि निर्मल हो तथा श्राप मेरे हृदय कमल में ज्ञान द्वारा व्यापक होकर मेरी श्रात्मा में प्रकाशमान हूजिये जिससे मेरी प्रात्मा का निज गुण सम्यक्ज्ञान सम्यक् दर्शन सम्यक् चारित्र सम्यक्तप शुद्ध क्षायकसम्यक्स्व रत्न प्रकट हो / हे अनन्त शनिमान् प्रमु जबतक मेरा मोक्ष न हो इस भव पर भवमें मेरा हर रोम हर स्वास हर समय श्रापकी पवित्र शरण प्राप्त कर आपके घधनों पर अटल श्रद्धा भग्नि रहे में सदा धापके फ़रमाये हुए पाच सुमति तीन गुप्ती वा धर्म का ही पालन करता रहू श्रापके शासन में परम प्रवन श्रद्धावान होते हुए मुझे दासत्व प्राप्त होना श्रेय है परन्तु जिन वचनों में RELATExnxxx XXCXCX XxnxxsariPage Navigation
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