Book Title: Jain Bhajan Shataka
Author(s): Nyamatsinh Jaini
Publisher: Nyamatsinh Jaini

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Page 21
________________ - - (१७) जैन बैन सत मान मान के ।। १ ॥ हित मित बचन कहो मेरे प्यारे । क्रोध लोभमद भान भान के ॥२॥ निश भोजन भूले नहीं करना। जीव पड़ेंगे वामें आन आन के ॥३॥ न्यामत हलन चलन जो करना।. करना सुमति हिए ठान गनके ।। ४.॥ . . .. .. - - __ तर्ज ॥ सोरठ अधिक स्वरूप रूपका दिया न जागा मोला . || जिया घर में सुमति तेरे नार कुमति पर क्यों ललचातेहो ॥टेक । कुमति मोह की सुता मोह की लाग लगाते हो । इक विषय बासनाकार नारके धोके में आते हो ॥१॥ कल्पतरू को तोड़ पेड़ बम्बूल लगाते हो । काँच खंडले चिंतामणि सिंध में लगाते हो॥२॥ सुमति सुहागन त्याग कुमति को घरमें बुलाते हो। न्यामत शिव मारग छोड़ कुमारग को क्यों जाते हो ॥३॥ - - तर्ज | सोरठ अधिक स्वरूप रूप का दिया न जागा मोल ॥ सुन कुमति दुहागन नार मेरे घर अब क्यों आती है ।। टेक॥ काल अनन्त चतुर गतिमें जीको भ्रमाती है। तू जो जो दुख देती है बात वह कही नहीं जाती है ॥१॥ तू कुलटा धोका देकर नौं ले जाती है ।। - -

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