Book Title: Jain Bhajan Shataka
Author(s): Nyamatsinh Jaini
Publisher: Nyamatsinh Jaini

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Page 39
________________ ( ३५ ) धन्य भाग यह जान आपने उत्तम नर गति पाई । उत्तम कुल में जन्म लियो है वृथा काहे गंवाई | जिया० ॥ ४ ॥ जैन धर्म न्यामत तूने पाया पूरव कर्म सहाई । तज मिथ्यात गहो तनमनसे जो जिन शासन गाई || जिया०|५| ५४ तर्ज़ ॥ इलाजे दर्द दिल तुमसे मसीहा हो नहीं सकता ॥ बिना भक्ती सुनो चेतन जगत में तूने दुखपाया । अरे अब तो समझ मूरख कि अवसर तेरा बन आया ॥ टेक ॥ अनंती काल नकों में सहे दुखड़े बहुत तूने । गया अब भूल क्यों मूरख तुझे अभिमान क्या छाया ॥ १ ॥ इकेन्द्र से पचेन्द्री तक पशुपक्षी की गति भोगी । कहीं जलचर कहीं नभचर समझले अब तो समझाया ॥ २ ॥ स्वर्ग में भोग सुरियन संग बहुतसी सम्पदा पाई । लखा मुरझाई माला को तु अपने मनमें पछताया ॥ ३ ॥ मनुष भव में गर्भ माही उठाये कष्ट दुर्गति के । तरुण होकर फंसा विषयन काम आंखों में जब छाया ॥ ४ ॥ वृद्ध होकर करी ममता गंवाए तीनो पन अपने । भला पछताय क्या होवे काल जब बाके मुंह आया ॥ ५ ॥ भागधन न्यायमत जानो कि उत्तम काया नर पाई । करो श्रद्धान जिनवाणी पे जो जिनराज फ़रमाया ॥ ६ ॥ ५५ तर्ज़ ॥ चलो अब तो प्रभुजो का करलो म्हवन || कहीं देखे हमारे गुरु जिन मुद्रा धार ।

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