Book Title: Jain Bhajan Shataka
Author(s): Nyamatsinh Jaini
Publisher: Nyamatsinh Jaini

View full book text
Previous | Next

Page 65
________________ - . (६१) ज्ञान चुनरिया फारी। रही मैं समा में उघारी ॥ ऐसी० ॥३॥ . ऐसी कर्मों ने होरी खिलाई, भव भवमें भई ख्वारी। सेवक जान करो मोपे कृपा, . यह न्यायमत दुखारी। मही प्रभु शरण तिहारी । ऐसी० ॥ ४॥ - 'तर्ज ॥ नहीं प्रायोरी मेरा सांवरिया ॥ नहीं० ॥ ॥ चाल ठुमरी ।। चल आवोरी देखो सुमेला ॥ चल० ॥ टेक ॥ सखी हांसी शहर सुहावन। जिनमंदिर मन भावन ।। सुमेला०।१।। मिती चौदश भादों दूजे । सम्बत् (१९४७) उनीस सैंतालीस साजे ॥ सुमेला०॥२॥ शुभ कारज मन में छाया। एक मंडप अधिक बनाया ॥ सुमेला० ॥३॥ . सब जन मिल की तैय्यारी। ' ' ' धरी शिविकामध्य जल झारी । सुमेला० ॥ ४॥ । गाते गाते बजारों आए। आनंद से जल भरलाए । सुमेला०॥५॥ जब प्रभुजी को न्हवन कराया।

Loading...

Page Navigation
1 ... 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77