Book Title: Jain Bhajan Shataka
Author(s): Nyamatsinh Jaini
Publisher: Nyamatsinh Jaini

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Page 66
________________ ( ६२ ) आनंद मेघ वर्षाया || सुमेला || ६ || न्यामत जिन दर्शन करलो | जनम जनम अघ हरलो || सुमेला० ॥ ७ ॥ ૯૯ तर्ज़ ॥ इलाजे दर्द दिल तुमसे मसीहा हो नहीं सकता || यह है कर्मों की गति न्यारी किसीसे ना टरे टारी । करो तुम नाश कर्मों का यही दुख कारी सुख हारी ॥ टेक ॥ हरि जो नोमे नारायण भए त्रय खंड के राजा । मुवे पर ना कोई रोया न उत्पति मंगला चारी ॥ १ ॥ सती सीता हरी रावण हुई निन्दा सकल जगमें । रही अंजना बरष बारा पवन के वियोग में न्यारी ॥ २ ॥ रामचन्दर थे बलभद्दर अयुष्या राज जब पाया । कर्म अंतर पड़ा आके फिरे बन बनमें दुखहारी ॥ ३ ॥ पांच पांडव महा जोधा को भी कर्मोंने आ घेरा । द्यूतके संग करने से सब अपनी सम्पदा हारी ॥ ४ ॥ कर्म से वश चला किसका समझ तो न्यायमत इतना | छुड़ाओ कर्म के बंधन जो है वो मोक्ष अधिकारी ॥ ५ ॥ ८९ तर्ज़ ॥ गये भैना पिहरवा नैना बदल | ( चाल ठुमरी) जिन जीके चरणों में जीया लगा । जीया लागा मनको लगा प्यारे जीया लगा जिन० ॥ टेक ॥

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