Book Title: Jain Bhajan Shataka
Author(s): Nyamatsinh Jaini
Publisher: Nyamatsinh Jaini

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Page 51
________________ ( ४७ ) होवे कर्मन की तोराफोरी ॥ सतसंग० ॥ ३ ॥ ७१ तर्ज़ || सब ठाट पड़ा रहजावेगा जब लाद चलेगा बनजारा ॥ यहां कोई किसीका यार नहीं एक धर्म जीव का साथी है ।। टेक ॥ भाई बन्धु स्वारथ के साथी नहीं कोई मीत और नाती है । वह अंत समय दूर होते हैं जो कहते यार संगाती हैं ॥ १ ॥ तिरिया चंचल मनकी प्यारी जो आज तेरी मनभाती है । जब नाता जगमें टूट चला तब पास जरा नहीं आती है ॥ २ ॥ यह देह जिसे अपनी करमानी अंत दगा दे जाती है । जब दूत मौतका बांध चले यह संग तेरे नहीं जाती है ॥ ३ ॥ अय न्यामत क्यों भूला फिरता है बात तेरी नहीं भाती है । धर्म की नाव में बैठचलो भवसागर पार हो जाती है ॥ ४ ॥ ७२ तर्ज || टूटे न दूध के दांत उमर मेरी कैसे करे वाली ॥ ( वीच बीच में दौड़ है ) कहो किसे उलाहना देरी सखी इन करमन नटखट का | चलो ज्ञान जल भरने मारग रोक लिया शिवकी पनघट का ॥ लपक झपक झटहो लटपट समकित का फोड़ दिया मटका ॥ टेक ॥ लोभ का मला है ऐसो मेरे मुखपे गुलाल | भूल गई मैंतो ज्ञान ध्यान सुधि और संभाल ॥ काम क्रोध गेंद मार मार के पछारी । जिन भक्ती की चीर फारी रहगई. उधारी ॥.

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