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(५०) हम निर्बल नहीं जा सकें, मानुपोत्तर पार । प्रभू तेरा शरणा लिया, कीजो भवदधि पार ॥ २ ॥
चंबोला। कीज़ो भवदधि पार नाथ में शरणा लिया तुम्हारा । तीनं जगत के कुदेव छोड़े तुमपे निश्चय धारा ।। १ ।। । सेठ सुदर्शन को शूलीसे सिंघासन दीना भारा । पावक को करदिया नीर जब सिया ने मंत्र उचारा ॥२॥ चीर बढ़ाया था द्रोपदि का सभा बीच जाने सारे । मानतुंग जब कैद हुआ तब तोड़ दिये सगरे तारे ॥ ३ ॥ राणी उबला की पण राखी राजा बोधमती हारे। दिया धर्म उपदेश अनंती भवसागर सेती तारे ॥ ४ ॥
दोहा।
न्यामत बावन चैत्य को, बंदे शीस नमाय । चरण कमल महाराज के, पूजे अर्घ बनाय ।।
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तर्ज ॥ जीते जी कद्रवशर की नहीं होती प्यारे । याद मावेगी तुझे मेरी
वफ़ा मेरे वाद (यह मुबारिक बादी है) आज मंदिर में सभा होना मुबारिक होवे । फिर वही धर्म का उपकार मुबारिक होवे ।। १॥ . सारे भाइयों का जमा होना धर्म की चरवा। | नेम और धर्म का करना सो मुबारिक होवे ॥२॥
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