Book Title: Jain Bhajan Shataka
Author(s): Nyamatsinh Jaini
Publisher: Nyamatsinh Jaini

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Page 26
________________ Ben - - - (२२) - - तर्ज ॥ एजो हम आए हैं दर्शन काज मिटावो प्रभु यीथा हमारी जी॥ एजी प्रभु भवजलपतित उधार तुम बिन कोई नहीं ऐसाजी। टेक और देव सब रागी द्वेषी। कैसे उतरें पार हमें है भारी अंदेशा जी ॥ एजी० ॥१॥ तारत तरण तुमही हम जानी। तेरेहि गुण उरधार । हरेंगे कर्म कलेशा जी ॥ एजी० ॥२॥ जीव अनन्त प्रभु तुम तारे। अबके हमारी बार यही न्यामत को भरोसा जी ।। एजी० ॥३॥ - - - - - - तर्ज ॥ यह कैसे बाल हैं विखरे यह क्या सूरत बनी गम को ।। अहो जग बंधु जग नायक अर्ज इतनी हमारी है। कि कर्मों ने मेरी इस जगमें आ हुरमत बिगारी है ।। टेक ।। मैं इस भव बनमें फिर हारा चतुर गति दुख सहे भारी।। कहूं मैं अपने मूह से क्या बिपति जानो हो तुम सारी ॥१॥ कर्म बैरी मुझे हर आन मन माना सताते हैं । मनुष तिर्यंच सुर नारक में अरहट जूं फिराते हैं ॥२॥ लुटेरे सारी दुनियां के ज्ञान धन हर लिया सारा । पाप पुन पांव में बेड़ी लगा तन बंध में डारा ।।३।। सिंघ बानर सर्प शुकर नवल सब तुमने तारे हैं। ऊंच और नीच नहीं देखाशरण आए उभारे हैं।॥ ४ ॥ - - - - t

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