Book Title: Jain Bhajan Shataka
Author(s): Nyamatsinh Jaini
Publisher: Nyamatsinh Jaini

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Page 29
________________ - - - - (२५) निरंजन जन जगत रंजन बिपति अपनी सुनाऊं मैं ॥ टेक॥ मेरा मन मोह मतवारा, सेज मिथ्यात पग धारा । पड़ा अज्ञान निद्रा में कहो क्योंकर जगाऊं मैं ।। १॥ कुमति आशक्त हो निश दिन विषय में खो दिया निज गुण । मुमति सुन्दर सुहागन को तजा क्योंकर मनाऊं मैं ॥२॥ क्रोध मदलोभ माया का बनाया है कोट भारी। राग और द्वेष का पहरा लगा जाने न पाऊं मैं ॥३॥ तुही है देव देवन को करो बश इस मेरे मनको । लहे न्यामत जो निज गुण को चरण में चित लगाऊं मैं ॥४॥ तर्ज ॥ काहे को चले गिरनारी विनती तो सुनियो॥ तू हितकारि दुख हारि बिनती तो सुनियो ॥ ॥ टेक॥ बैरि कर्म महा दुखदाई । इनसे करो छुटकारी ॥बिनती०॥१॥ क्रोध लोभ मदमाया चारों। दुखकारी अघभारी ॥विनती०२॥ | न्यामत शरण चरण तुमरीली । बेग करो उद्धारी। बिनती० ॥३॥ D तर्ज ॥ सुन सुनरी भावी भय्या को भेजू परदेश । · नहीं नहीं रे देवर सेजों की शोभा उनके साथ ॥ ( यह गीत अक्सर औरतें गाती हैं) || परदेशिया में कौन चलेगा तेरे लार ॥ टेक ॥ चलेगी मेरी माता चलेगी मेरी नार । नहीं नहीं रे चेतन जावेंगी दर तक लार ॥ परदे०॥१॥ - - % - -

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