Book Title: Jain Bhajan Shataka
Author(s): Nyamatsinh Jaini
Publisher: Nyamatsinh Jaini

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Page 22
________________ - - | फिर वह गत करती है तेरी जो पार बसाती है ।।२।। न्यामत पीत तजी अब तेरी बू नहीं भाती है। चौथ चान्द सम मुख तेरा मुझे क्यों दिखलाती है ॥३॥ - तर्ज़ ॥ सोरठ अधिक स्वरूप रूप का दिया न जागा मोल ॥ घर आवो सुमति बरनार तेरी सूरत मन भाती है ॥ टेक ॥ कुमति दुहाग दिया तुझ कारण जो तू चाहती है। पूनम चन्द्र तेरा मुख है क्यों नहीं दिखलाती है ॥ १॥ मुनि जन इन्द्रबली नारायण सब मन भाती है । स्वर्ग चन्द्र सूरज तु अंतको शिवले जाती है ॥२॥ तुझको पाकर परमाद मोहकी थिति घट जाती है। न्यामत प्रीति करी तेरेसे अव नहीं जाती है ॥३॥ - - तर्ज ॥ सोरठ अधिक स्वरूप रूपका दिया न जागा मोल ॥ अरे यह क्या किया नादान तेरी क्या समझपे पड़गई धूलोटेक आंब हेत ते बाग लगायो बो दिये पेड़ बम्बूल । अरे फल चाखेगा रोवेगा क्या रहा है मन में फूल ॥१॥ हाथ सुमरनी बाँह कतरनी निज पद को गया भूल। मिथ्या दर्शन ज्ञान लिया रहा समाकित से प्रतिकूल ॥२॥ कंचन भाजन कीच उठाया भरी रजाई शूल । न्यामत सौदा ऐसा किया जामें ब्याज रहा नहीं मूल ॥३॥ % 3D 3 3 -.. - --

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