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होती जाती है। गृहस्थघर इस बात का दृष्टात है। एक मनुष्य के यहाँ दो पुत्र उत्पन्न होते हैं तब उनमे घनिष्ठ सम्बन्ध दिखाई देता है।
तत्पश्चात् इन दोनों के यहाँ जो पुत्र उत्पन्न होते हैं उनमें निकटता का सम्बन्ध होते हुए भी पहिले के समान घनिष्ठता दिखाई नहीं देती। तथा इनके जो पुत्र होते हैं उनका मूल दो पुरुषों से किसी एक मे शिथिल सम्बन्ध दिखाई पड़ता है। अतःएव कोई माता से पांचवां तथा पिता से सातवा पृथक ही कहलाता है। इस प्रकार बहुत काल व्यतीत होने पर गुण कर्मानुसार भिन्न भिन्न जाति रूप में मनुष्य विभक्त हो जाते हैं और ऐसी अवस्था में वे विभाग पडने उचित ही थे। यदि किसी समय मे कोई व्यक्ति या समाज अथवा कोई सजातीय या विजातीय मनुष्य अपने गुण कर्मों को भूल कर पतितावस्था को प्राप्त हो गया हो तो उसका उद्धार करने तथा कराने का प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण अधिकार है। क्योंकि आत्मोद्धार का अधिकार किसी एक व्यक्ति अथवा समाज के आधीन नहीं है, किन्तु समस्त प्राणियों को इसका अधिकार है। कोई भी मनुष्य यदि अपने दुर्गुणों को दूर करके त्याग करके सद्गुणी तथा सुकर्मी हो तो फिर वह अपना उद्धार क्यों नहीं कर सकता ? जब त्याज्य गुण कर्मों को त्याग कर किसी मनुष्य में शुद्धता आवे तव उसमे आयंत्व भी आ ही जाता है।