Book Title: Jagat aur Jain Darshan
Author(s): Vijayendrasuri, Hiralal Duggad
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 62
________________ [ ५० ] अर्थात् पुत्र उत्पन्न होने रूप कार्य मे जब उपर्युक्त पाचों कारण मिलते हैं तभी कार्य सिद्ध होता है, केवल भाग्य पर आधार रख कर बैठे रहने से किसी भी कार्य की सिद्धि नहीं होती तिलों मे तैल होता है, परन्तु वह उद्यम विना नहीं निकलता। मात्र उद्यम को ही फल दाता माना जाय तो चूहा उद्यम करते हुए भी सांप के मुख में जा पडता है। बहुत मनुष्य द्रव्य प्राप्ति के लिये उद्यम करते हैं, किन्तु फल की प्राप्ति नहीं होती। केवल भाग्य (कर्म) और उद्यम दोनों को ही माना जाय तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि खेती करने वाला उचित समय के सिवाय उत्पन्न होने की शक्ति वाले वीज को उद्यम पूर्वक बोये तो भी वह फलीभूत नहीं होता क्योंकि काल नहीं है। यदि इन तीनों को ही कारण माना जाय तो भी ठीक नहीं है क्योंकि उगने की शक्तिहीन छर् मूंग को बोने में-काल, भाग्य, पुरुषार्थ होते हुए भी स्वभाव का अभाव होने से उत्पन्न नहीं होगी। अव यदि ये चारों-काल, कर्म, पुरुषार्थ, स्वभाव कारण हों किन्तु भवितव्यता न हो तो भी कार्य की सिद्धि नहीं होती। वीज अच्छा हो और अंकुर उत्पन्न भी हुआ हो किन्तु यदि होनहार (भवितव्यता) ठीक न हो तो कोई न कोई उपद्रव होकर वह नष्ट हो ही जावेगा। ___ इस लिये किसी भी कार्य की निप्पत्ति मे जैनशास्रकारों ने ये पाच कारण माने हैं और ये पाचों ही कारण एक दूसरे की अपेक्षा से प्राधान्यता को लिये हुए है।

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