Book Title: Jagat aur Jain Darshan
Author(s): Vijayendrasuri, Hiralal Duggad
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 75
________________ [ ६३ ] १ जीव---जीव का लक्षण-चेतनालक्षणो जीवः ऐसा कह सकते है। जिसमें चैतन्य है वह जीव है। इस जीव के मुख्य दो भेद हैं। १ संसारी और २ मुक्त । मुक्त वे हैं कि जिन्होंने समस्त कर्मों को क्षय कर सिद्ध-निरंजन-परब्रह्मस्वरूप को प्राप्त किया है। दूसरे शब्दों में कहें तो जो मोक्ष मे गये हुए अथवा आत्मस्वरूप को प्राप्त किये हुए हैं वे मुक्तजीव हैं। इनका वर्णन प्रारंभ में ईश्वर के प्रकरण में किया गया है। अव रहे संसारी । कर्म से वद्ध-कर्मयुक्त दशा को भोगने वाले संसारी जीव हैं। संसार यह चार गतियों का नाम है। देव-मनुष्य-तिर्यंच और नारक, इन चार गतियों का नाम संसार है। कर्मबद्धावस्था के कारण जीव इन चार गतियों में परिभ्रमण करता है। संसारीजीव के दो भेद हैं:-१ त्रस ओर २ स्थावर । स्थावर के पाच भेद हैं:-१ पृथ्वीकाय, २ अपकाय, ३ तेजस्काय, ४ वायुकाय, और ५ वनस्पतिकाय । ये पाचों प्रकार के जीव ऐकेन्द्रिय वाले-त्वगिन्द्रिय वाले होते हैं। इसके भी दो भेद हैं। सूक्ष्म और चादर । सूक्ष्म जीव समस्त लोक में व्याप्त हैं। समस्त लोकाकाश ऐसे जीवों से परिपूर्ण है। स जीवों मे दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों का समावेश होता है। ये जीव हलन-चलन की क्रिया करते हैं इस लिये 'स' कहलाते हैं। पंचेन्द्रियजीवों के चार भेद हैं-नारक, नियंच, मनुष्य और देवतां। नारक

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