Book Title: Jagat aur Jain Darshan
Author(s): Vijayendrasuri, Hiralal Duggad
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 64
________________ [ २ ] अब इस बात का विचार करें। स्याद्वाद की संक्षेप में व्याख्या इस प्रकार हो सकती है "एकस्मिन् वस्तुनि सापेक्षरीत्या विरुद्धनानाधर्मस्वीकारो हि स्याद्वादः।" एक पदार्थ मे अपेक्षा पूर्वक विरुद्ध नाना प्रकार के धर्मों को स्वीकार करना इसका नाम स्याद्वाद है। संसार के सव पदार्थों में अनेक धर्म रहे हुए हैं यदि सापेक्षरीत्या इन धर्मों का अवलोकन किया जावे तो उसमें उन धर्मों की सत्यता अवश्य ज्ञात होगी। एक व्यवहारिक दृष्टान्त को ही लो___ एक मनुष्य है, उसमे अनेक धर्म रहे हुए है। वह पिता है, वह पुत्र है, वह चाचा है, वह भतीजा है, वह मामा है, और वह भानजा भी है। यद्यपि ये सभी धर्म परस्पर में विरुद्ध हैं तथापि ये एक ही व्यक्ति मे विद्यमान हैं, और इन विरुद्ध धर्मों को यदि हम अपेक्षापूर्वक देखें तो तब ही यह सिद्ध होंगे। मतलब यह है कि वह पिता है अपने पुत्र की अपेक्षा, वह पुत्र है अपने पिता की अपेक्षा, वह भतीजा है अपने चाचा की अपेक्षा, वह मामा है अपने भानजे की अपेक्षा, तथा वह भानेज है अपने मामा की अपेक्षा। इस प्रकार अपेक्षापूर्वक न देसा जावे तो ऐसे विरुद्धधर्म एक व्यक्ति मे कदापि संभव नहीं हो सकते।

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