Book Title: Jagat aur Jain Darshan
Author(s): Vijayendrasuri, Hiralal Duggad
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 66
________________ [ ५४ ] दूसरा हो जावेगा। इस लिये आत्मा मे कथंचित् नित्यत्व और कथंचित् अनित्यत्व को अवश्य हो स्वीकार करना पड़ेगा । यह तो चैतन्य का दृष्टान्त हुआ, परन्तु जडपदार्थ में भी 'उत्पाद - व्यय-धौन्ययुक्तं सत्' द्रव्य का यह लक्षण 'स्याद्वाद्' की शैली से जरूर घटित होता है। जैसे सोने की एक कंठी लो । कंठी को गलाकर कंदोरा बनाया। जिस समय कंठी को गलाकर कंदोरा बनाया उस समय कंदोरे का उत्पाद (उत्पत्ति ) तथा कंठी का व्यय ( नाश ) हुआ, परन्तु स्वर्णत्व ध्रुव हैविद्यमान है। इस प्रकार जगत के सब पदार्थों में 'उत्पादव्यय - धौव्ययुक्तं सत्' यह लक्षण घटित होता है और यही स्याद्वादशैली है। एकान्त नित्य, अथवा एकान्त अनित्य कोई भी पदार्थ नहीं माना जा सकता । कंठी को गलाकर कन्दोरा बनाने मे कंठी का मात्र आकार वदला है किन्तु कंठी की तमाम वस्तुओं का नाश नहीं हुआ और कंदोरा उत्पन्न हो गया । एकान्त नित्य तो तभी माना जाय कि यदि कंठी का आकार गलाने या तोड़ने पर भी चाहे किसी भी समय जैसे का वैसा ही कायम रहता हो । और एकान्त अनित्य तभी माना जायगा जब कि कंठी को तोड़ने- गलाने से सर्वथा उसका नाश होता हो एवं उसमें से एक भी अंश दूसरी वस्तु में न आता हो ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85