Book Title: Jagat aur Jain Darshan
Author(s): Vijayendrasuri, Hiralal Duggad
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 67
________________ [ ५५ ] इसी प्रकार सर्व पदार्थों में नित्यत्व, अनित्यत्व, प्रमेयत्व, वाच्यत्वादि धर्म रहे हुए हैं। इन धर्मों को सापेक्षरीति से स्वीकार करना-इन धर्मों को सापेक्षरीति से देखना, इसका नाम ही स्यादा है। सीधी तरह से नहीं तो किसी न किसी रूप में भी इस स्याद्वाद का स्वीकार प्रायः सभी आस्तिक दर्शनकारों ने किया है, इस प्रकार मैं अपने दार्शनिक अभ्यास पर से जान सका है। सब दर्शनकारों ने भिन्न भिन्न प्रकार से स्याद्वाद को कैसे स्वीकार किया है ? इसे बताने के लिये जितना समय चाहिये उतना समय यहां नहीं है। इस लिये यहां पर मैं काशी के सुप्रसिद्ध विद्वान स्वर्गीय महामहोपाध्याय पंडित राममिश्र जी शास्त्री के सुजनसम्मेलन नामक व्याख्यान मे से स्याद्वाद सम्बन्धी लिखे हुए शब्दों को ही कहूंगा : "अनेकान्तवाद तो एक ऐसी वस्तु है कि इसे प्रत्येक को स्वीकार करना ही पड़ेगा। तथा लोगों ने इसे स्वीकार किया भी है। देखो विष्णुपुराण मे लिखा है : नरकस्वर्गसंज्ञे वै पुण्यपापे द्विजोत्तम ! । वस्त्वेकमेव दुःखाय सुखायेयर्जिवाय च । कोपाय च यतस्तस्मात् वस्तु वस्त्वात्मकं कुतः ? ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85