Book Title: Jagat aur Jain Darshan
Author(s): Vijayendrasuri, Hiralal Duggad
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 71
________________ [ ५६ ] २ अधर्मास्तिकाय-यह भी एक अरूपी पदार्थ है। जिस प्रकार पथिक को स्थिति करने मे-स्थिर होने मे वृक्ष की छाया सहायभूत है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल को स्थिर होने मे यह पदार्थ सहायक होता है। __ इन दोनो पदार्थों के कारण ही जैनशास्त्रों में लोक और अलोक की व्यवस्था बताई है अर्थात् जहा तक ये दोनों पदार्थ विद्यमान हैं वहा तक ही लोक और इससे पर अलोक है। अलोक मे एक मात्र आकाश ही है अन्य कोई भी पदार्थ नहीं है और इसीलिये ही मोक्ष मे जाने वाले जीवों की गति लोक के अन्त तक बतलाई है। इस से आगे इन दो शक्तियों का धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अभाव होने से जीव वहा गति नहीं कर सकता। यदि ये दो पदार्थ न माने जायँ तो जीव की उर्ध्वगति बराबर होती ही रहेगी, तथा ऐसा मानने से मोक्षस्थान की व्यवस्था ठीक निर्णीत नहीं हो सकेगी इस से अनवस्थादोष प्राप्त होगा, परन्तु ऊपर दो पदार्थो-दो शक्तियों की विद्यमानता मानने से ये सब अड़चनें दूर हो जाती हैं। इस अधर्मास्तिकाय के भी स्कन्ध, देश और प्रदेश ये तीन भेद माने गये हैं। ३ आकाशास्तिकाय--यह भी एक अरूपी पदार्थ है। जीव और पुद्गल को अवकाश देना इसका कार्य है। यह आकाशपदार्थ लोक और अलोक दोनों में है। इसके भी स्कन्धादि पूर्वोक्त तीनों भेद हैं।

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