Book Title: Jagat aur Jain Darshan
Author(s): Vijayendrasuri, Hiralal Duggad
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 24
________________ [ १२ ] आर्यशब्द से मेरा अभिप्राय किसी समाज अथवा संप्रदाय से नहीं है किन्तु हेयधर्मों को छोड़ कर जो कोई भी सद्गुणों - सत्कर्मों को स्वीकार करे वही आर्य कहला सकता है । वह किसी भी समाज, सम्प्रदाय या जाति में क्यों न हो, उसको सज्जन लोग आर्य ही मानते हैं । संसार के सभी मनुष्य सद्गुणों और सत्कर्मों को प्राप्त करें एवं अपना उद्धार करें - यह मेरी हार्दिक अभिलापा है । इतना कह कर मैं अपना भाषण समाप्त करता हूँ । आप सब ने सावधानता पूर्वक मेरा भाषण सुना है, इसलिये मैं आपको धन्यवाद देता हूँ । ॐ शान्ति शान्ति सुशान्तिः ता० २४-१२-२३ धर्म सं० २ श्रीविजयेन्द्रसूरि 0-0

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