Book Title: Jagat aur Jain Darshan
Author(s): Vijayendrasuri, Hiralal Duggad
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 44
________________ [ ३२ ] सज्जनो! ___ इतने समय तक आप सबने मेरा व्याख्यान सुनने में जो धैर्य और शान्ति रखी है, इसके लिये मैं अन्तःकरण से आप को धन्यवाद देता हूं एवं साथ ही इतना अनुरोध भी करता हू कि सामान्य धर्मों में कहीं भी भेद नहीं है। एक विद्वान ने कहा है कि: Eternal truth is one but it is refleted in the minds of the singers ___ यदि प्रत्येक तत्त्वज्ञान का तुलनात्मक दृष्टि से अवलोकन किया जाय तथा उस पर विचार किया जाय तो बहुत से मत भेद तुरत ही मृत्यु को प्राप्त हो सकते हैं। भारत के धार्मिक उत्थान के लिये भारतीय लोगों को धार्मिक क्लेशों को दूर करना चाहिये। ऐसा करने से ही हमारी एकता जगत को अद्भुत चमत्कार वता सकेगी, ऐसा मेरा नम्र तथा दृढ़ विश्वास है। अन्त मे जैनधर्म, जो कि यूनिवर्सल-दुनिया का धर्म है इसे जगत अपनावे यही मेरी सदेच्छा है। इतना कह कर मैं अपना वक्तव्य समाप्त करता हूं। वन्दे जिनवरम् । आचार्य विजयेन्द्रसरि.

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