Book Title: Jagat aur Jain Darshan
Author(s): Vijayendrasuri, Hiralal Duggad
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 58
________________ [ ४६ ] भी नहीं है, एक ज्ञानी - एक महामूर्ख, यह सब जगत का वैचित्र्य होने का कुछ न कुछ कारण अवश्य होना चाहिये । तथा वह कारण दूसरा कोई नहीं है किन्तु सब किसी का अपने अपने किये हुए कर्मों का फल ही है । जीव जिस जिस प्रकार के कम करके जन्म लेता है उस उस प्रकार के फलों की प्राप्ति उसे होती है । इसी लिये कहा गया है कि यद्यपि "कर्म" यह जड पदार्थपौगलिक पदार्थ है तथापि इसकी शक्ति कुछ कम नहीं है । कर्म जड होते हुए भी वे चैतन्य को आत्मा को अपनी तरफ़ खींचते है तथा जिस प्रकार का वह कर्म होता है वैसी ही गति अथवा सुख दुःख की तरफ इसको ले जाता है । आत्मा पुरुषार्थ करते करते अपनी अनन्त शक्तियों को विकसित करते करते जिस समय इन कर्मों का सर्वथा नाश करेगा उस समय यह अपने असली - वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करेगा - ईश्वरत्व प्राप्त करेगा । यहाँ इस शंका को अवकाश है कि अनादि काल से जीव और कर्मों का एक साथ सम्बन्ध है - एक साथ रहे हुए हैं तो फिर वे कर्म सर्वथा अलग कैसे हो सकते है ? इन कर्मों का सर्वथा अभाव कैसे हो सकता है ? इस शंका का समाधान अवश्य विचारनीय है । यह बात सत्य है कि आत्मा के साथ कर्म का सम्वन्ध अनादि कहा गया है, परन्तु इसका अर्थ यह है कि अनादि काल से आत्मा --

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