Book Title: Jagat aur Jain Darshan
Author(s): Vijayendrasuri, Hiralal Duggad
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 57
________________ [ ४५ ] कर्म का परिणाम है और दुःख असातावेदनीय कर्म का परिणाम है। ६ आयुण्यकर्म-जीवन को टिका रखने वाला कर्मआयुःकर्म है। देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी का आयुष्य प्राप्त होना इस कर्म के ही फल स्वरूप है। ७ नामकर्म-अच्छी गति, सुन्दर शरीर, पूर्ण इन्द्रियादि ये शुभ नामकर्म के कारण प्राप्त होते हैं। तथा नीचगति, कुरूपशरीर, इन्द्रियों की हीनता वगैरह अशुभ नामकर्म के कारण प्राप्त होते हैं। ८ गोत्रकर्म-इस कर्म के कारण से उच्चगोत्र और नीचगोत्र की प्राप्ति होती है। शुभकर्म से उच्चगोत्र और अशुभकर्म से नीचगोत्र प्राप्त होता है। ___ उपर्युक्त आठ कर्मों के अनेकानेक भेद प्रमेद हैं। इनका वर्णन "कर्मग्रंथ", "कम्मपयड़ी", आदि ग्रंथों में बहुत ही विस्तार पूर्वक किया गया है। ऊपर बताये गये कर्मों को सूक्ष्मता पूर्वक अवलोकन करने वाले महानुभाव सरलता पूर्वक समझ सकेंगे कि-जगत मे जो नाना प्रकार की विचित्रता दिखलाई देती है, वह सब कर्मों के ही कारण से है। एक सुखी-एक दुःखी, एक राजा-एक रंक, एक काना-एक अपंग, एक मोटर मे बैठता है-और एक पीछे दौड़ता है, एक महल में रहता है-एक को रहने के लिये झोंपड़ी

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