Book Title: Jagat aur Jain Darshan
Author(s): Vijayendrasuri, Hiralal Duggad
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 55
________________ [ ४३ ] स्याद्वादमंजरी आदि अनेक प्रन्थों में विस्तार पूर्वक स्पष्टीकरण किया हुआ है, इन ग्रन्थों को देखने के लिये विद्वानों को मैं सूचना करता है। कर्म __ ऊपर, ईश्वर के विवेचन मे कर्म का उल्लेख किया गया है। इस कर्म का सर्वथा क्षय होने से कोई भी आत्मा ईश्वर हो सकती है। यह "कर्म" क्या वस्तु है, यहां पर मैं इसे संक्षेप मे बताने का प्रयत्न करूंगा। ___“जीव" अथवा "आत्मा" यह ज्ञानमय अरूपी पदार्थ है, इसके साथ लगे हुए सूक्ष्म मलावरण को कर्म कहते हैं। “कर्म" यह जडपदार्थ है-पौगलिक है। कर्म के परमाणुओं को कर्म का "दल" अथवा "दलिया" कहते हैं। आत्मापर रही हुई राग-द्वेप रूपी चिकनाहट के कारण इस कर्म के परमाणु आत्मा के साथ लगते हैं। यह मलावरण-कर्म, जीव को अनादि काल से लगे हुए हैं। इनमें से कोई अलग होते हैं तो कोई नये लग जाते है, इस प्रकार क्रिया हुआ करती है। आत्मा के साथ इस प्रकार लगने वाले कर्मों के जैनशास्त्रकारों ने मुख्य दो भेद बताये हैं। १ घातिकर्म और अघातिकर्म । जो कर्म आत्मा से लगकर इसके मुख्य स्वभाविकगुणों का घात करते हैं वह घातिकर्म हैं और जो कर्म के परमाणु आत्मा के मुख्य गुणों

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