Book Title: Jagat aur Jain Darshan
Author(s): Vijayendrasuri, Hiralal Duggad
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 53
________________ [ ४१ ] एवं मुक्तावस्था में नवीन कर्मबन्धन का भी कारण नहीं रहता क्योंकि कर्म - यह एक जड पदार्थ है । इसके परमाणु वहीं लगते हैं जहाँ राग-द्वेष की चिकनाहट होती है किन्तु मुक्तावस्था - परमात्मस्थिति में पहुंची हुई आत्माओं को रागद्वेष की चिकनाहट का स्पर्शमात्र भी नहीं होता। इसलिये मुक्तावस्था मे नवीन कर्म वन्धन का भी अभाव है तथा कर्मबन्धन के अभाव के कारण वे मुक्तात्माएं पुनः संसार में नहीं आतीं । दूसरी बात - ईश्वरकतृत्व सम्बन्धी है। जैनदर्शन मे ईश्वरकर्तृत्व का अभाव माना गया है अर्थात् " ईश्वर को जगत का कर्त्ता नहीं माना जाता " । सामान्यदृष्टि से देखा जाय तो जगत के दृश्यमान सर्व पदार्थ किसी न किसी के द्वारा बने हुए अवश्य दिखलाई देते है, तो फिर जगत जैसी वस्तु किसी के बनाये बिना बनी हो, और वह नियमितरूप से अपना व्यवहार चला रही हो, यह कैसे संभव हो सकता है यह शंका जनता को अवश्य होती है । किन्तु विचार करने की बात है कि हम ईश्वर का जो स्वरूप मानते हैं - जिन जिन गुणों से युक्त ईश्वर का स्वरूप वर्णन करते हैं इस स्वरूप के साथ ईश्वर का 'कट' त्व' कहाँ तक उचित प्रतीत होता है ? इस बात का विचार करना भी उचित जान पड़ता है ।

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