Book Title: Jagat aur Jain Darshan
Author(s): Vijayendrasuri, Hiralal Duggad
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 52
________________ [४० ] इस प्रसंग पर 'आत्मा' 'परमात्मा' किस प्रकार हो सकता है ? "परमात्मस्थिति" में पहुंचा हुआ आत्मा कहां रहता । है ? इत्यादि विवेचन करने योग्य है, परन्तु ऐसा करने से निवन्ध का कलेवर बढ़ जाने का भय है इसलिये इस विषय को छोड कर ईश्वर सम्बन्धी जैनों की खास खास दो मान्यताओं की तरफ आप सव का ध्यान आकर्पित करूंगा। ___ प्रथम वात यह है कि "ईश्वर अवतार धारण नहीं करता। यह बात स्पष्ट समझी जा सकती है कि जो आत्माएँ सकल कमों को क्षय कर सिद्ध होती है संसार से मुक्त होती है, उन्हें संसार में पुन: अवतार लेने का कोई कारण नहीं रहता। जन्म-मरण को धारण करना कर्मपरिणाम से होता है परन्तु मुक्तावस्था मे तो इस कर्म का नामोनिशान भी नहीं रहता। जव"कर्म" रूप कारण का ही अभाव है, तो फिर "जन्म धारण करने रूप कार्य की उत्पत्ति ही कैसे हो सकती है? क्योंकि : "दग्धे बीजे यथाऽत्यन्त प्रादुर्भवति नोकुरः । कर्मवीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः॥" जिस प्रकार वीज के सर्वथा जल जाने के बाद उसमे से अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता उसी प्रकार कर्म रूपी बीज के सर्वथा जल जाने पर संसार रूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता।

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