Book Title: Jagat aur Jain Darshan
Author(s): Vijayendrasuri, Hiralal Duggad
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 49
________________ [ ३७ ] रहने पाता, यह स्पष्ट बात है और इसी का ही कारण है कि जो जो विद्वान जैनतत्त्वज्ञान का अभ्यास कर रहे हैं वे वे विद्वान जैनतत्त्वज्ञान की मुक्तकंठ से उत्कृष्टता स्वीकार कर रहे हैं। मात्र इतना ही नहीं परन्तु विज्ञान की दृष्टि से इस तत्त्वज्ञान का अभ्यास करने वाले तो इस पर विशेषतः मुग्ध हो रहे है। इस संवन्ध मे इटालियन विद्वान डा. एल. पी० टेसीटोरी ने कहा है : "जैनदर्शन बहुत ही ऊँची पंक्ति का है। इसके मुख्य तत्त्व, विज्ञानशाख के आधार पर रचे हुए हैं। मेरा यह अनुमान मात्र ही नहीं हैं परन्तु पूर्ण अनुभव है। जैसे जैसे पदार्थ विज्ञान आगे बढ़ता जाता है वैसे वैसे जैनधर्म के सिद्धान्त सिद्ध होते जाते हैं।" ऐसे उत्तम जैनतत्त्वज्ञान के विषय मे मैं इस छोटे से निबन्ध मे क्या लिख सकता हू ? इस बात का विचार आप सब लोग स्वभाविक ही कर सकते हैं। इस लिये मैं जैनधर्म मे प्रकाशित किये गये बहुत और अति गम्भीर तत्त्वों का विवेचन न कर मात्र संक्षेप मे ही स्थूल स्थूल तत्वों के सम्बन्ध मे थोडा सा यहा उल्लेख करूँगा। ईश्वर इस समय सर्व प्रथम जैनों की ईश्वर सम्वन्धी मान्यता का उल्लेख करूँगा। ईश्वर का लक्षण कलिकालसर्वज्ञ

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