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[ १५ ] एक शाखा मात्र है, कुछ लोगों की मान्यता थी कि महावीरस्वामी ही इस धर्म के संस्थापक थे, कुछ लोग तो जैनधर्म को नास्तिकधर्म भी कहते थे एवं कुछ की मान्यता थी कि बुद्ध और जैनधर्म एक ही हैं। आज भी ऐसी मान्यता वालों का सर्वथा अभाव तो नहीं है परन्तु अभ्यास और शोधखोल के कारण यह बात तो निश्चित रूप से प्रमाणित हो चुकी है कि जैनधर्म का प्रचार बुद्धधर्म से भी पहले था एवं महावीरस्वामी तो इस धर्म के संस्थापक नहीं थे, परन्तु प्रचारक थे।
पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि सर्व प्रथम ब्राह्मणधर्म तथा बुद्धधर्म पर पड़ी और वे इन्हीं दोनों धर्मों के अभ्यास मे लग गये तथा जैनधर्म के अभ्यास की तरफ उनका लक्ष्य न गया। दूसरी बात यह है कि महावीर और बुद्ध ये दोनों समकालीन थे तथा दोनों के जीवन और उपदेश मे कुछ साम्य भी था इस कारण से इन दोनों धर्मों को एक ही मान लेने की भूल भी कई लोगों ने की। अजैन विद्वानों मे जैनधर्म सम्बन्धी इतनी अज्ञानता होने का कारण तथा तज्जन्य आक्षेप करने का कारण मात्र यही ज्ञात होता है कि उनमें मूल अभ्यास
और संशोधन की कमी थी। परन्तु जैसे जैसे अभ्यास और शोधखोल की उन्नति होती गई वैसे वैसे विद्वानों को भी जैनधर्म के सिद्धान्त और इतिहास कुछ और ही प्रकार के तथा महत्व के ज्ञात होने लगे। जिसके परिणाम स्वरूप आज