Book Title: Jagat aur Jain Darshan
Author(s): Vijayendrasuri, Hiralal Duggad
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 35
________________ [ २३ ] परन्तु आत्मा किसी की भी सहायता के विना, निज पुरुषार्थ बल से जीवनमुक्त ( कैवल्य ) अवस्था प्राप्त करता है ऐसा उपदेश देता है। आत्मा सम्पूर्ण आत्मज्ञान द्वारा (कैवल्य ज्ञान से) जगत के सर्व भावों को जान और देख सकती है एवं उसके पश्चात् वह मोक्षपद को प्राप्त करती है। मुक्त आत्माओं को निर्मल आत्म ज्योति में से परिस्फूरित जो स्वभाविक आनन्द है वही आनन्द वास्तविक सुख है। ऐसी आत्माओं के शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध, निरंजन, परमब्रह्म इत्यादि नाम शाखों में कहे हैं। ईश्वर ईश्वर के सम्बन्ध में जैन शास्त्र एक नवीन ही दिशा का सूचन करते हैं। इस विषय में जैनदर्शन हरेक दर्शन से प्रायः जुदा पड़ जाता है, यह इस दर्शन की एक विशिष्टता है। परिक्षीणसकलकर्मा ईश्वरः । जिसके सकल कर्मों का क्षय हो चुका है, ऐसी आत्मा परमात्मा बनती है। जो जीव आत्म स्वरूप के विकास के अभ्यास से आगे बढ़ कर परमात्मा की स्थिति में पहुंचता है वही ईश्वर है। यह जैनशास्त्रों की मान्यता है। हा, परमात्मस्थिति को प्राप्त किये हुए सब सिद्ध परस्पर एकाकार हैं, एक समान गुण और शक्तिवाले होने के कारण समष्टिरूप से इनका 'एक शब्द' से भी व्यवहार हो सकता है।

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