Book Title: Jagat aur Jain Darshan
Author(s): Vijayendrasuri, Hiralal Duggad
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 21
________________ [ E ] है न कि बहुत धनसम्पन्न । इस आत्ममृद्धिमान् आर्य फे अर्हन्, चक्रवर्त्ती, बलदेव, वासुदेव, जंघाचारण तथा विद्याचारण- इस प्रकार छ भेद हैं । अनृद्धिमान् आर्य के क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कुलार्य, कर्मार्य, शिल्पार्य, भाषार्य, ज्ञानार्य, दर्शनार्य तथा चारित्रार्य इस प्रकार नव भेद हैं । महानुभावो । इन अपरिचित भेद-प्रभेदों को सुनकर आप आश्चर्य न करें। मैं इन सब का अर्थ अनुक्रम से आपको बताता हूँ । प्रथम क्षेत्रार्य - यद्यपि भरत क्षेत्र मे ३२ हजार देश हैं, परन्तु उनमें केवल साढ़े पच्चीस देश ही आर्य माने गये हैं । इनके नाम सूत्रकृताङ्ग -सूत्र में प्रथम श्रुतस्कंध के पाँचवें अध्ययन के टीकाकार श्रीकोट्याचार्य ने बतलाये हैं । वे नाम विस्तार भय से मैं यहाँ पर नहीं बतलाना चाहता । उन देशों में रहने वाले क्षेत्रार्य पद से व्यवहत होते हैं । जात्यार्य के छः भेद हैं— अम्बष्ठ, कलिन्द, वैदेह, वेदंग, हरित एवं चुचुण | तीसरे कुलार्य के मुख्य छः भेद हैं उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल, इक्ष्वाकुकुल, ज्ञातकुल, कौरवकुल । चौथे कर्मार्य के अनेक भेद शास्त्र मे कहे हैं —जैसे कि दौसिक, सौत्तिक, कार्पासिक, भंडवैतालिक इत्यादि । पाँचवें शिल्पार्य के तंतुवाय, सौचिक, पट्टकार तथा हतिकारादि का समावेश होता है । संस्कृत, प्राकृत और अर्द्धमागधी को जानने वाला भाषा आर्य कहलाता है । इसमे समष्टि–व्यष्टि रूप से अठारह भाषाओं के जो रसिक हों वे २

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