Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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समितीय भारतीय संस्कृति में विशिष्ट कोटि के महापुरुषों की प्रशस्ति, गाथा, स्तुति की परंपरा वैदिक युग से लेकर पुष्पदत-भूतबलि युग, हेमचंद्र युग एवं आधुनिक युग तक अविरत रूप से प्रवाहित है। इसके अंतर्गत शूरवीर, दानवीर, राजवीर, एवं तपोवीरों की गाथाओं से जन-जन भलीभाँति परिचित है। इस परंपरा में विद्यावीरों की प्रशस्ति का समाहरण भी स्वाभाविक है। यह प्रक्रिया व्यक्तिगत जीवन के लिये प्रेरणा, धार्मिक एवं सांस्कृतिक विचार एवं परिवेश की परिरक्षा, जीवन्तता तथा वर्तमान एवं भविष्य के ऊर्ध्वमुखी विकास की दिशा के प्रति जागरूकता प्रदान करती है। इसकी उपयोगिता के प्रति प्रश्नचिह्न अतीत के प्रति अनादर तथा वर्तमान एवं भविष्य के प्रति उपेक्षा का प्रतीक है। जैन संस्कृति भी इस प्रक्रिया से अनाप्लावित कैसे रह सकती है ? बीसवीं सदी के धार्मिक एवं सांस्कृतिक क्षरण के युग में इस या इसके समकक्ष प्रक्रिया का अविरत रहना अनिवार्य है। इसीलिये पिछले पचास वर्षों में इसकी गति न केवल तेज ही हुई है अपितु इसके उद्देश्य व स्वरूप में विविधता भी आई है। वागीश शास्त्री के अनुसार, पहले यह प्रक्रिया मात्र व्यक्ति-प्रधान थी, यह मात्र पुष्पमाला 'पत्र-पुष्प', एवं मानपत्रों में सीमित थी। अब यह साधुवादित के माध्यम से स्थायी, शोधोन्मुख, ज्ञान वर्धक, विचार प्रेरक संदर्भसाहित्य की प्रस्तुति के रूप में विकसित हो चुकी है। इस प्रस्तुति के कम-से-कम चार रूप हमारे सामने आये हैं । इनमें ( १ ) व्यक्तिगत जीवन के विविध आयाम, (२) व्यक्तित्व एवं कृतित्व, ( ३ ) व्यक्तित्व, कृतित्व एवं धर्म-संस्कृति के विविध आयामों का परंपरागत या शोधगत परिचय, तथा ( ४ ) विशेष विषय के शोधपूर्ण क्षितिज समाहित हैं। इन रूपों में अन्तिम दो रूप नवीन पीढ़ी के अध्ययनशील स्तर एवं शोधचि को पल्लवित करते हैं और वर्तमान को उन्नत करने की प्रेरणा देते हैं । ये रूप बहु-श्रम, बहु-समय एवं बहु-व्यय साध्य भी होते हैं । वर्तमान में प्रथम रूप तो प्रायः अदृश्य हो गया है, पर दूसरे रूप की प्रचुरता दिख रही है। इसी प्रकार यद्यपि चौथे रूप की विरलता ही है, पर तीसरा रूप भी पर्याप्त प्रचलन में है। हमारा यह प्रयत्न उपरोक्त उपयोगी एवं अविरत परंपरा को विभिन्न प्रस्तुतियों में से तीसरे रूप का प्रतीक है। यह बीसवीं सदी के नव विद्वत्-बंधुओं द्वारा परंपरापूत विद्या-गुरु के लिये साहित्यिक यज्ञ का प्रकल्प है।
पंडित जगन्मोहनलाल शास्त्री ऐसे विद्यावीर एवं श्रावकवीर हैं जिन्होंने न केवल आधुनिक विद्यावीरों का स्रजन ही किया है, अपितु उन्होंने अपने गहन अध्ययन से जैन विद्याओं के आचार-विचार पक्ष को प्रकाशित भी किया है। गृहस्थ रह कर भी उन्होंने गृहत्यागी श्रावकवीरत्व का अभ्यास किया है। वे मूलाम्नायी परवार कुलावतंस है। उनके समान विरल-वीरता के साधुवाद के स्वाभाविक विचार का उदय १९८० में हुआ था, परंतु अनेक ननु-नच के बाद इसको १९८६ के उत्तरार्ध में ही मूर्तरूप देने का सक्रिय प्रयास किया जा सका। इस प्रयास के घोषित होते ही अनेक प्रकार के झंझावात आये, सहयोगी असहयोगी बने, उपयोगिता एवं निष्ठायें संदिग्ध कोटि में आई, अकृत कृत्य की कोटि में लाये गये, व्यक्तिगत विचार सार्वजनिक विवाद के विषय बने । इनके
गत थे, अहंभावी थे या अन्य, यह तो नहीं कहा जा सकता, पर इससे गुरुता अवश्य विकृत की गई । हमें ऐसा लगता है कि वह शास्त्रीय अभ्यास ही क्या जब उद्वेलनों के समय ही उसकी अनुकृति विस्मृत की जावे । परंपरा को उपेक्षित भी कर दिया जावे, तो भी सोमदेव के गृहस्थों के षट्कर्तव्यों, आशाधर के सत्रह श्रावक गुणों, हेम चन्द्र के पैंतीस मार्गानुसारी गुणों तथा प्रवचनसारोद्धार के इक्कीस श्रावक गुणों को विस्मृत
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