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प्रथम
श्री
कल्पसूत्र
हिन्दी अनुवाद।
॥४॥
प्रतिक्रमण करना चाहिये । शेष तीर्थंकरों के साधुओं को दोष लगे तो प्रतिक्रमण करना चाहिये, अन्यथा नहीं। उसमें भी मध्यम तीर्थंकरों के साधुओं को कारण होने पर ही दैवसिक और रात्रिक (राई) प्रतिक्रमण IN करना चाहिये । इसके अतिरिक्त पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करने की उन्हें आवश्यकता नहीं। यह आठवाँ प्रतिक्रमण कल्प जानना ।।
९. मासकल्पभी पहले तथा अन्तिम तीर्थंकरों के मुनियों को, मासकल्प की मर्यादा नियम से उन्हें दुष्काल, अशक्ति
और रोगादि कारणों में शहर के पुरे में, दूसरे महल्ले में और उस वसति के कौने में परावर्तन कर के भी इस मर्यादा को बनाये रखना व पालना शास्त्र का आदेश है । परन्तु शेष काल में एक मास से अधिक एक स्थान पर न रहना चाहिये, क्योंकि ऐसा न करने से प्रतिबन्ध, लघुता आदि बहुतसे दोष प्राप्त हो सकते हैं । परन्तु मध्यम तीर्थंकरों के मुनि सरल और प्राज्ञ होने के कारण उपरोक्त दोषों से वर्जित हैं अतः उनको मासकल्प की मर्यादा नियम से नहीं हैं। वे मुनि एक स्थान पर पूर्वकोटि तक भी रह सकते हैं और दोष लगने की संभावना होने पर महीने के अन्दर भी विहार कर जासकते है । यह नवमा मासकल्प जानना।
१०. पर्युषणकल्पपर्युषणा-एक स्थान पर निवास तथा वार्षिक पर्व ये दोनों का नाम पर्युषणा है। वार्षिक पर्व-भाद्रपद
॥
४॥
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