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१२. प्राकृत-अपभ्रंश पांडुलिपियों की सम्पादन-प्रक्रिया
प्रो. प्रेमसुमन जैन
प्राकृत-अपभ्रंश पांडुलिपियों की सम्पादन-प्रक्रिया श्रमण संस्कृति में हस्तलिखित ग्रन्थों की सुदीर्घ परम्परा से जानी जा सकती है । लेखनकला के विकास में जैन आचार्यो, मुनियों व श्रावकों का महत्त्वपूर्ण योगदान है । ऐतिहासिक दृष्टि से जैन परम्परा में यह कहा जाता है कि भगवान ऋषभदेव ने अपनी पुत्रियों को लिपिकला का ज्ञान दिया था। भगवान महावीर के उपदेश बहुत समय तक मौखिक परम्परा द्वारा ही सुरक्षित रहे हैं। लगभग १-२ शताब्दी तक संभवत: जैन ग्रन्थों को लिपिबद्ध करने की बात सोची जाने लगी थी । सम्राट खारवेल के अभिलेख में आगम लिखवाने का उल्लेख है । अनुयोगद्वारसूत्र में भी पत्रारुढ श्रुत (ग्रन्थ) को द्रव्यश्रुत माना गया है। किन्तु जैन आगमों को लिखित स्वरूप आचार्य देवर्द्धिगणि की अध्यक्षता में संवत् ९८० में वल्लभी में आयोजित सम्मेलन में ही प्राप्त हुआ है । यद्यपि इसके पूर्व पहली-दुसरी शताब्दी में आचार्य उमास्वाति तथा कुन्दकुन्दाचार्य जैसे विद्वान् ग्रन्थलेखन का प्रारम्भ कर चुके थे। ___ पांडुलिपि-सम्पादन में आज जो पाठान्तरों, सम्प्रदायों तथा अर्थान्तरों की समस्याएं हैं, वे प्राचीन समय में भी थीं । जैन आगम-साहित्य एवं उसके व्याख्या-साहित्य के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि आचार्य देवर्द्धिगणि के समक्ष भी आगमों के कई मौखिक पाठान्तर प्रचलित थे । उस समय आगमों का सर्व प्रथम लिपिबद्ध सम्पादन हुआ उसमें उन सभी पाठान्तरों को सम्मिलित कर लिया गया था । आगे चल कर व्याख्या साहित्य में भी कई पाठान्तर सुरक्षित होते रहे हैं । अत: पाठान्तर की एक लम्बी परम्परा है । पाठान्तर होने के कई कारण हैं, जैसे
(१) आचार्यों की परम्परा भेद से पाठान्तर होते हैं।
(२) जैन ग्रन्थों के लेखक प्रायः मुनि रहे हैं । वे जब किसी ग्रन्थ की पांडुलिपि का वाचन करते हुए उपदेश देते थे तो व्याख्या करते हुए कई अन्य गाथाएँ आदि उसी पांडुलिपि के हाशिये पर लिख देते थे। कालान्तर में जब उस पाण्डुलिपि की प्रति लिखी जाती थी तो हाशिये पर लिखी सामग्री भी मूलग्रन्थ में सम्मिलित हो जाती थी।
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