Book Title: Hastprat Vidya ane Agam Sahitya
Author(s): Niranjana Vora
Publisher: Gujarat Vidyapith Ahmedabad

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Page 165
________________ ૧૫૦ હસ્તપ્રતવિદ્યા અને આગમ સાહિત્ય: સંશોધન અને સંપાદન पर ही विशेष ध्यान था। इस कारण से आगमों की मूल अर्धमागधी भाषा इतनी बदल गई की उसे मूल रूप में खोज निकालना एक बहुत बड़ी समस्या बन गई है। यह समस्या कितनी जटिल बन गई है इसके विषय में आगम साहित्य के प्रकांड विद्वान् आगमप्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजी के ही शब्दों में उनका अभिप्राय यहाँ पर उद्धृत करता हूँ जो' उन्होंने कल्पसूत्र की भूमिका में विस्तार के साथ प्रस्तुत किया है । “प्रतिओमां भाषादृष्टिले अने पाठोनी दृष्टिो घणुं समविषमपणुं छे. आ कारणसर मौलिक भाषाने तेना मौलिक पाठोना स्वरूपनो निर्णय करवो आपणा माटे अति दुष्कर वस्तु छे. __ जैन आगमोनी भाषा विषे जे केटलाक निर्णयो बांधेला छे ते मान्य करी शकाय तेवा नथी. अर्वाचीन प्राकृतमा मध्यवर्ती व्यंजनोनो लोप भेटला प्रमाणमां न हतो जे प्राकृत व्याकरणकारो दर्शावे छे. पाठभेदो स्वाभाविक रूपे ज थई गया नथी. पाछळना आचार्योओ पाठकोनी सुगमता माटे शब्द-प्रयोगोने बदली तारव्या छे. जैन आगमोनी मौलिक भाषामो घणुं ज परिवर्तन थई गयुं छे तेने लीधे आजे जैन आगमोनी मौलिक भाषा केवी हती ते शोधवानुं कार्य दुष्कर ज थई गयुं. विविध कारणोने आधीन थईने जैन आगमोनी मौलिक भाषा खीचडं ज बनी गई छे. एटले जैन आगमोनी मौलिक भाषामुं अन्वेषण करनारे घणी ज. धीरज राखवी जरूरी छे. प्राकृत भाषाना अगाध स्वरूपने जोतां श्री हेमचंद्रनुं प्राकृत व्याकरण से तो प्राकृत भाषानी बाळपोथी ज बनी जाय छे. उत्तरोत्तर लेखकदोषादिने कारणे अने तेमाथी लेखकोओ उपजावी काढेला पाठो के विविध प्रकारना लिपिदोषोना ज्ञाननी पण ग्रंथसंशोधनमां जरुरियात बनी रहे छे." __इस पर से स्पष्ट होता है कि आगम-ग्रंथों के संपादन में मौलिक भाषा तक पहुँचना कितना कठिन कार्य है। फिर भी उन्होंने यह भी कहा है कि बहुत ही धीरज से कार्य करने पर और प्राकृत भाषा का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने पर मौलिक भाषा के नज़दीक तो पहुँचा जा सकता है। इस कार्य के लिए यह जानना बहुत जरुरी है कि भगवान् महावीर के समय में उनके विहार के स्थल की भाषा का क्या स्वरूप रहा होगा। इसके लिए हमारे पास जो भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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