Book Title: Gyanchakshu Bhagwan Atma
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 11
________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा दिट्ठी सयं पि णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव। जाणदि य बंधमोक्खं कम्मुदयं णिज्जरं चेव॥ दृष्टिः यथैव ज्ञानमकारकं तथाऽवेदकं चैव। जानाति च बन्धमोक्षं कर्मोदयं निर्जरां चैव॥ तमेव अकर्तृत्वभोक्तृत्वभावं विशेषेण समर्थयति; [दिट्ठी संय पि णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव] यथा दृष्टि: की दृश्यमग्रिरूपं वस्तुसंधुक्षणं पुरुषवन्न करोति तथैव च तप्तायः पिंडवदनुभवरूपेण न वेदयति। तथा शुद्धज्ञानमप्यभेदेन शुद्धज्ञानपरिणत जीवो वा स्वयं शुद्धोपादानरूपेण न करोति न ज्यों नेत्र, त्यों ही ज्ञान नहिं कारक, नहीं वेदक अहो! जाने हिं कर्मोदय, निरजरा, बन्ध त्यों ही मोक्ष को॥ गाथार्थ - [यथा एव दृष्टिः ] जैसे, नेत्र (दृश्य पदार्थों को करता-भोगता नहीं है किन्तु देखता ही है);[ तथा] उसी प्रकार [ज्ञानम् ] ज्ञान, [अकारकं ] अकारक [ अवेदकं च एव] तथा अवेदक है [ च] और [बन्धमोक्षं] बन्ध, मोक्ष, [कर्मोदयं] कर्मोदय [ निर्जरांच एव] तथा निर्जरा को [ जानाति ] जानता ही है। उसी अकर्तत्वभोक्तत्वभाव को विशेषरूप से दढ करते हैं [दिट्ठी सयं पि णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव] जिस प्रकार नेत्रकर्ता, दृश्यवस्तु को, संधुक्षण करनेवाला (अग्नि सुलगानेवाला) पुरुष अग्निरूप वस्तु को करता है उस प्रकार, करता नहीं है, और तपे हुए लौहपिण्ड की भाँति अनुभवरूप से वेदता नहीं है; उस प्रकार शुद्धज्ञान भी अथवा अभेद से शुद्धज्ञान, परिणत जीव

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