Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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प्रस्तावना
२५
__ 'जीवसमास' में दूसरे और तीसरे गुणस्थान का स्वरूप एक-एक गाथा से कहा है और उनका क्रमांक ६ और १० है। किन्तु जीवकाण्ड में दूसरे गणस्थान का स्वरूप दो गाथाओं से और तीसरे का चार गाथाओं से कहा है, फलतः उनका क्रमांक १६-२० और २१-२४ हैं। _ 'जीवसमास' का कथन बहुत साधारण है कि सम्यक्त्वरूपी पर्वत के शिखर से मिथ्यात्वरूपी भूमि की ओर गिरता हुआ जीव सासादन गुणस्थानी होता है। इसमें यह नहीं बतलाया कि वह क्यों सम्यक्त्व से गिरता है। यही सिद्धान्त की महत्त्वपूर्ण बात है कि उपशम सम्यक्त्व के काल अन्तर्मुहूर्त में एक समय से लेकर छह आवली काल शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय हो जाने से वह सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व से च्युत होता है। च्युत होते ही वह चतुर्थ गुणस्थान से गिरकर दूसरे में आता है और दूसरे से प्रथम में आकर पुनः मिथ्यादृष्टि हो जाता है। यह सब जीव के परिणामों का खेल है।
॥ तरह 'जीवसमास' में तीसरे सम्यक् मिथ्यात्व या मिश्रगुणस्थान का स्वरूप कहा है कि दही और गुड़ के मिलने से जैसे एक विचित्र स्वाद होता है, उसी तरह से सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के मिले-जुले भाव का नाम मिश्रगुणस्थान है। जीवकाण्ड में इसका कारण सम्यक्मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय कहा है। तथा तीसरे गुणस्थान की अन्य विशेषताएँ भी बतलायी है कि वहाँ मरण नहीं होता। यह सब कथन जीवसमास में नहीं है।
'जीवसमास' में चतुर्थ गुणस्थान का स्वरूप दो गाथाओं से कहा है, जिनका क्रमांक ११ और १२ है; किन्तु 'जीवकाण्ड' में चार गाथाओं से कहा है, जिनमें ये दोनों गाथाएँ भी हैं। वहाँ इनका क्रमांक २६ और २७ है। जीवसमास में सम्यग्दर्शन के भेदों का स्वरूप और कारण नहीं कहा है; किन्तु जीवकाण्ड में कहा है। इसी तरह जीवसमास में पंचम और षष्ठम गुणस्थान का स्वरूप एक और दो गाथाओं से कहा है, किन्तु जीवकाण्ड में षष्ठम गुणस्थान का स्वरूप बारह गाथाओं से कहा है।
छठे गुणस्थान का नाम है-प्रमत्तविरत अर्थात जो मुनि होकर भी प्रमाद सहित है, वह प्रमत्तविरत है। प्रमाद पन्द्रह हैं-चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, निद्रा, स्नेह। इन्हीं के भंगों के निकालने की विधि का वर्णन विस्तार से किया है।
1. 'जीवसमास' में अप्रमत्त गुणस्थान का स्वरूप एक गाथा से कहा है। इसके दो भेद हैं-स्वस्थानाप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त। जीवसमास में केवल स्वस्थानाप्रमत्त का स्वरूप कहा है। यह गुणस्थान मध्य का ऐसा केन्द्र है जहाँ से उत्थान और पतन दोनों सम्भव हैं। आगे बढ़ने का नाम उत्थान है। उत्थान के लिए अधःकरणरूप परिणामों का होना आवश्यक है; उसके बिना ऊपर के गुणस्थानों में नहीं चढ़ सकता। ऊपर चढ़नेवाले को ही सातिशय अप्रमत्त कहते हैं। जीवकाण्ड में उसका स्वरूप और अधःकरणरूप परिणामों की रचना का वर्णन है। टीकाकारों ने अपनी टीकाओं में उसका रहस्य अंकसंदृष्टि के द्वारा विस्तार से उदघाटित किया है। यह सब जैन सिद्धान्त का मार्मिक रहस्य है, जिसका ‘जीवसमास' में अभाव है।
इस तरह जीवसमास में ३१ गाथा तक चौदह गुणस्थानों का कथन है जो जीवकाण्ड में ६६ गाथापर्यन्त
२. इसके पश्चात् जीवसमास का कथन जीवसमास में ४२ गाथापर्यन्त अर्थात् केवल ग्यारह गाथाओं में है। किन्तु जीवकाण्ड में ११७ गाथापर्यन्त ४८ गाथाओं में है। इन ग्यारह में-से केवल दो गाथाएँ जीवकाण्ड में हैं जिनमें जीवसमास का स्वरूप तथा चौदह भेद गिनाये हैं। जीवसमास में जीवसमास के चौदह, इक्कीस तीस, बत्तीस, छत्तीस, अड़तीस, अड़तालीस, चौवन और सत्तावन भेद कहे हैं। किन्तु जीवकाण्ड में एक से लेकर उन्नीस तक भेद गिनाये हैं। पुनः सामान्य, पर्याप्त-अपर्याप्त और सामान्य, निर्वृत्यपर्याप्त, लब्ध्यपर्याप्त को लेकर उन्नीस, अड़तीस, और सत्तावन भेद किये हैं। सत्तावन में से एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय के इक्यावन भेदों को अलग रखकर सकलेन्द्रिय के सैंतालीस भेद मिलाकर ६८ भेद किये हैं।
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