Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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प्रस्तावना
रखता है। योग ही जीव के प्रति कर्मों के आस्रव का प्रमुख कारण है । अतः योगमार्गणा का भी विशेष महत्त्व है। जीवसमास में तो स्थूल बातें कही हैं ।
५. वेदमार्गणा - जीवसमास में वेदमार्गणा का कथन आठ गाथाओं में है, जिनमें से चार गाथाएँ जीवकाण्ड में हैं। जीवकाण्ड के इस प्रकरण में ग्यारह गाथाएँ हैं, जिनमें से पाँच गाथाओं द्वारा संख्या का कथन है ।
६. कषायमार्गणा - जीवसमास में इस प्रकरण में आठ गाथाएँ हैं, जिनमें से आदि और अन्त की दो गाथाएँ जीवकाण्ड में हैं । जीवकाण्ड के इस प्रकारण में सतरह गाथाएँ हैं, जिनमें से अन्त की तीन गाथाओं में जीवसंख्या है। इसमें विशेष कथन है, शक्ति, लेश्या तथा आयु के बन्ध और अबन्ध की अपेक्षा कषाय के भेदों का कथन । शक्ति की अपेक्षा प्रत्येक कषाय के चार भेद हैं और प्रत्येक भेद एक-एक गति का कारण है; जैसे क्रोध कषाय के चार भेद किये हैं- पत्थर की लकीर, पृथ्वी की लकीर, धूल की लकीर और जल की लकीर । ये भेद उपमा रूप में हैं। पत्थर की लकीर नहीं मिटती, उसके समान न मिटनेवाली क्रोध कषाय नरकगति का कारण है, आदि। इन कषायों के अनुसार ही लेश्या होती हैं और लेश्या के अनुसार ही आगामी भवकी आयु का बन्ध होता है। यह सब कथन बहुत उपयोगी है जो जीवसमास में नहीं है
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७. ज्ञानमार्गणा - जीवसमास में इस मार्गणा का कथन केवल दस गाथाओं से है, जिनमें से नौ गाथाएँ जीवकाण्ड में हैं; किन्तु जीवकाण्ड में ज्ञानमार्गणा कड़ी है। इसमें एक सौ छियासठ गाथाएँ हैं, जिनमें से केवल अन्त की चार गाथाओं में जीव संख्या कही है। शेष एक सौ बासठ गाथाओं में ज्ञान के भेदों का वर्णन है । ज्ञान के पाँच भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान । इन्द्रियजन्य ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं। और मतिज्ञानपूर्वक होनेवाले विशेष ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। उसके दो भेद हैं- शब्दजन्य और लिंग जन्य या अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक । तथा इनके बीस भेद भी हैं। इन बीस भेदों का कथन श्वेताम्बर परम्परा में केवल कर्मग्रन्थ में ही देखने में आया है । दिगम्बर परम्परा में भी धवला की तेरहवीं पुस्तक में है । उसी से जीवकाण्ड में लिया गया प्रतीत होता है। श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के विस्तृत कथन के कारण ही यह मार्गणा बहुत विस्तृत और महत्त्वपूर्ण है ।
८. संयममार्गणा - जीवसमास में इसमें ग्यारह गाथाएँ हैं, जिनमें से नौ गाथाएँ जीवकाण्ड में हैं। जीवकाण्ड में इसमें सतरह गाथाएँ हैं । अन्त की दो गाथाओं में जीव संख्या है।
६. दर्शनमार्गणा - जीवसमास में केवल चार गाथाएँ हैं। चारों गाथाएँ जीवकाण्ड में हैं। जीवकाण्ड में सात गाथाएँ हैं, जिनमें से दो में जीवसंख्या है।
१०. लेश्यामार्गणा - जीवसमास में इसमें बारह गाथाएँ हैं, जिनमें से ग्यारह जीवकाण्ड में हैं । किन्तु जीवकाण्ड के इस प्रकारण में गाथा संख्या एक सौ अड़सठ है अर्थात् ज्ञान मार्गणा से भी यह मार्गणा बड़ी है । इसमें सोलह अधिकारों के द्वारा लेश्या कथन किया गया है, वे हैं-निर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रम, कर्म, लक्षण, गति, स्वामी, साधन, संख्या, क्षेत्र, स्पर्श, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । इन्हीं के कारण इसका विस्तार है। जीवसमास में तो केवल लक्षण का ही कथन है ।
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११. सम्यक्त्वमार्गणा - जीवसमास में इस मार्गणा का कथन पन्द्रह गाथाओं से है। उनमें से छह गाथाएँ जीवकाण्ड में हैं । किन्तु जीवकाण्ड में इस प्रकरण में लगभग सौ गाथाएँ हैं। छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय और नौ पदार्थों के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहते हैं । अतः ग्रन्थकार ने छह द्रव्यों का वर्णन नाम, उपलक्षण आदि द्वारा विस्तार से वर्णन किया है। कालद्रव्य का वर्णन तेरह गाथाओं से है। तथा पुद्गल द्रव्य के वर्णन में तेईस वर्गणाओं का वर्णन वर्गणाखण्ड के आधार पर दिया है। जीवसमास के अन्त में उसका उपसंहार करते हुए जो कथन है, वह व्यवस्थित नहीं है । उसमें से कुछ गाथाएँ जीवकाण्ड में लेश्या और सम्यक्त्व मार्गणाधिकार में व्यवस्थित रूप में हैं ।
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